Friday, May 13, 2011

आंचलिकता के शिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु


जन्म- 4 मार्च 1921 मृत्यु- 11 अप्रैल 1977

रेणु अपनी कृतियों को धूल और धूप से संवारते हैं, उनके यहाँ शूल भी है, धूल भी है, धूप भी है, गुलाब भी हैं, काँटे भी हैं अर्थात् उनकी कृतियों में आंचलिकता उभरकर आती है। वे अपने व्यक्तित्व से ऐसी उजास विकीर्ण करते हैं, जिससे समाज और समुदाय को तेजस्विता प्राप्त होती है। अपने समकालीनों से अलग रेणु अपनी रचनाधर्मिता में ठेठ देहात की बोली-बानी के साथ उपेक्षित अंचल का सजीव चित्र उकेरते हैं। ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े रेणु ने गांवों को नजदीक से देखा और पाया कि आजादी के उपरांत उत्तर भारत के गांवों के विकास में कौन रोड़े अटका रहा है? उत्तर भारत के गांवों को सामंतवादी व्यवस्था उसे बढ़ने से रोकती है यही कारण है कि परिवर्तन की लहर को सामंतों ने अपनी ओर मोड़ लिया। ग्रामीणों की भाग्यवादिता और दोगली राजनीति की निहित स्वार्थपरकता ने यथास्थिति को तोड़ने में खतरे महसूस किये। इन क्षेत्रों में औद्योगिक पिछड़ेपन के पीछे भी इन्हीं शक्तियों का हाथ है। इन शक्तियों को डर था कि गांवों में रोशनी के आलोकित होते ही बागडोर उनके हाथ से निकल न जाय। रेणु ने सामाजिक व्यवस्था और सामंतवादी संरचना की इस गहरी साजिश की पड़ताल बहुत ही पहले कर ली थी। इसलिए वे 'मैला ऑंचल' में निहित स्वार्थों के इस टकराव पर गहरी चोट करते हैं। उन्होंने समाज में ब्राह्मणवादी व्यवस्था द्वारा किए जा रहे छूआछूत को उजागर करने में कोई कसर नहीं छोड़ा है। सहारा वन टीवी पर धारावाहिक 'बिट्टो' में दिखाया जा रहा था कि कैसे छोटी जाति के लोगों को अछूत मानकर काम पर नहीं रखा जाता है। मंदिर का पुजारी सीढ़ियों को उसी अछूत से साफ-सफाई करवाता है पर हिदायत के साथ कि तुम्हें मंदिर तक नहीं पहुंचना है। मंदिर की सीढ़ी धोती हुई बिट्टो गांव के छोटे ठाकुर त्रिलोकीनाथ के हाथ को इसलिए थाम लेती है ताकि ठाकुरजी फिसलकर गिर न पड़ें। लिहाजा छोटे ठाकुर को शुध्द कराने के लिए पुजारी गंगाजल से पवित्र कर नए जनेऊ धारण करवाता है। वही ठाकुर रात की कालिमा में बिट्टो की बड़ी बहन से चिपकने में कोई जात नहीं जाती। यह धारावाहिक 'मैला ऑंचल' में वर्णित ब्राह्मणवादी व्यवस्था को याद दिलाता है :
''अरे हो बुड़बक बभना, अरे हो बुड़बक बभना,
चुम्मा लेवे में जात नहीं रे जाए।
सुपति-मउनियाँ लाए डोमनियाँ, माँगे पियास से पनियाँ
कुऑं के पानी न पाए बेचारी, दौड़ल कमला के किनरियाँ
सोही डोमनियाँ जब बनली नटनियाँ, ऑंखी के मारे पिपनियाँ
तेकरे खातिर दौड़ले बौड़हवा, छोड़के घर में बभनिया।
जोलहा धुनिया तेली तेलनियाँ के पीये न छुअल पनियाँ
नटिनी के जोबना के गंगा-जमुनवाँ में डुबकी लगाके नहनियाँ।
दिन भर पूजा कर आसन लगाके पोथी-पुरान बँचनियाँ
रात के ततमाटोली के गलियन में जोतखी जी पतरा गगनियाँ।
भकुआ बभना, चुम्मा लेवे में जात नहीं रे जाए!'' 1
 
सचमुच, रेणु ने इस उध्दरण के बहाने छोटी जात वालों की लड़कियों से ऊँची जात वाले लड़कों के अवैद्य संबंध पर अपनी लेखनी चलाई है। क्या यह कहना समीचीन होगा कि मैला ऑंचल में वर्णित पूर्णियां अंचल का ही चादर मैला है? और रोग का जो निदान डॉ. प्रशांत ने इस अंचल के संदर्भ में किया था, क्या यह रोग महज पूर्णियाँ अंचल का ही है? क्या इसका संबंध महाराष्ट्र, बंगाल, उड़ीसा आदि के अंचल से नहीं है? साहित्यकार शिव कुमार मिश्र कहते है कि ''वस्तुत: जिस हकीकत को रेणु ने पूर्णियाँ अंचल के संदर्भ में उजागर किया है, वह पूरे हिन्दुस्तान की हकीकत है,जो तमाम आधुनिक प्रगति के, आज भी मूलत: गांवों का ही महादेश है। यहां महज पूर्णियाँ अंचल ही अपने दुख-दर्द, हर्ष-विषाद आदि के साथ रेणु के कृतित्व में नहीं उभरा है, यह खेत-खलिहानों वाला असली भारतवर्ष है जो परम्परा से चली आ रही सामंती बेड़ियों में जकड़े लाखों स्त्री, पुरूष, बच्चे, बूढ़ों और नौजवानों के लिए रेणु के कृतित्व में अपनी ज्वलन्त वास्तविकता के साथ प्रत्यक्ष हुआ है।''2 रेणु वर्तमान समस्याओं को खुलकर पाठकों के समक्ष रखने की भरपूर कोशिश करते हैं इसलिए उन्होंने समाज में बेटी को परायी धन मानकर उसपर माँ-पिताजी कितना ध्यान देते हैं इसकी अभिव्यक्ति देते हुए वे कहते हैं कि ''बैल बेच डालो, डाक्टर पहले की तरह मुस्कराते हुए सेलाइन देने की तैयारी कर रहा है। डॉक्टर बाबू बैल बेच दूँगा तो खेती कैसे करूँगा? बाल-बच्चे भूखों मर जाएँगे।... लड़की की बीमारी है। क्या मतलब? हुजूर, लड़की की जात बिना दवा-दारू के ही आराम हो जाती है! लेकिन बेचारे बूढ़े का इसमें कोई दोष नहीं। सभ्य कहलानेवाले समाज में भी लड़कियाँ बला की पैदाइश समझी जाती है। जंगल-झार!''3 यह तो आज भी उतना ही सत्य प्रतीत होता है क्योंकि महिलाओं की संख्या में निरंतर आ रही गिरावट से हम समझ सकते हैं कि हम आज भी अपने मानसिकता में कितना बदलाव ला पाए हैं। रेणु की दूरदृष्टि केवल चीजों की ऊपरी सतह पर ही देखकर संतुष्ट नहीं हुई थी बल्कि वे नीचे, बहुत नीचे उतरकर समाधान ढ़ूँढ़ने की भी भरपूर कोशिश करते हैं। आर्थिक स्थिति ठीक न होने पर भी उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। इसलिए तो अस्वीकार की राजनीति करते हुए बिहार सरकार द्वारा दी जानेवाली तीन सौ रुपये की मासिक सहायता को अस्वीकार कर दिया था। 1970 ई. में प्राप्त पद्मश्री का अलंकरण भी उन्होंने वापस कर दिया। भ्रष्टाचारी प्रभुसत्ता द्वारा फेंके गए रोटी के टुकड़े को उन्होंने उनके मुँह पर दे मारा था। वे जीवन में सफलता के नहीं वरन् चरितार्थता के अन्वेषी थे।
तीन कसमें खायी : रेणु ने पहली कसम खायी थी कि वह कलम के माध्यम से पूर्णियाँ ग्राम्यांचल और वहाँ की माटी-मूरत जैसे भोले धरा-पुत्रों के दुख-दर्दों से स्वयं को समाहित करते हुए उनकी पीड़ाओं को आत्मसात् करेगा। इसी कसम ने उन्हें यह आत्मबल प्रदान किया जिससे वे ऑंचल और परती भूमि की हर सिकुड़न और जटिलता को महाभारतकालीन संजय की सी दिव्यदृष्टि से रूपायित करने की अनूठी क्षमता का परिचय दे पाए। आंचलिक परिवेश में गहरी संवेदनशीलता व तरल यथार्थ की अभिव्यक्ति ने उसे अपने ढ़ंग का बेजोड़ साहित्यकार बना दिया। आम आदमी की जुबान से जुड़े रेणु ने दूसरी कसम ली थी कि जहाँ कलम असमर्थ हो जाएगी वहाँ वह क्रांति का मार्ग अपनाएगा। इस कसम को जुवां पर रखकर ही उन्होंने मानव अधिकारों के लिए आजीवन-आचरण संघर्षरत यौध्दा लेखक की भाँति समाज को ऊर्जावान बनाए रखा। 1942 ई. से वे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के योध्दा बने और जीवन पर्यन्त क्रूर व्यवस्था के खिलाफ क्रांति की बिगुल फूँकते रहे।
रेणु ने तीसरी कसम खायी थी कि वह कभी किसी भी मृत्यु को स्वीकार नहीं करेगा, जो उसके जुझारू जीवन का अंत कर सके। परती परिकथा व मैला ऑंचल आने के बाद समकालीन दुष्ट शत्रु ने लाख भ्रम फैलाया पर वे हार नहीं माने, निरंतर लिखते रहे। वे आज भी पाठकों के बीच जीवित हैं।

आज तो तानाशाही का ऑपरेशन है : लोकतंत्र की बगावत व तानाशाही के खिलाफ हर लड़ाई में रेणुजी सबसे आगे रहते थे। उन्होंने नेपाल में राजसत्ता व निरंकुशता के विरूध्द बगावत का नेतृत्व किया। भारत में ही सन् 74 में केन्द्र की कांग्रेस सरकार के खिलाफ वे जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में बिहार आंदोलन में हिस्सा लिया। 1975 ई. में जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की तो वे आपातकाल के विरूध्द भी सक्रिय रहे। आपातकाल के दौरान फारविशगंज के दारोगा ने रेणु जी से कहा कि आपको गिरफ्तार करने के लिए दबाब पड़ रहा है इसलिए आप यहाँ से कही चले जाइए। लोगों के बहुत कहने वे भूमिगत होकर नेपाल चले गए। भूमिगत होने पर उनके पुत्र वेणु 500 रुपये में जमीन गिरवी रखकर उन्हें खाने के लिए पैसे दे आए थे। 1975 ई में बिहार छात्र आंदोलन में भी उन्होंने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। सरकार ने उन्हें जेल का रास्ता दिखाया, पूर्णियाँ जेल में वे महीनों पड़े रहे। पेप्टिक अल्सर के कष्ट के कारण उन्हें जेल से रिहा किया गया। डॉक्टरों ने पेप्टिक अल्सर बीमारी के इलाज के लिए ऑपरेशन की सलाह दी पर उन्होंने यह कह कर टाल दिया कि अभी काम बहुत करना है। आपातकाल के समय उन्होंने 'राँड़ का बेटा साँड़' नामक उपन्यास लिखी पर किसी ने प्रकाशित करने का साहस नहीं जुटा पाया। 'कागज की नाव' लिखने पर कांग्रेसी लोगों को यह भय हुआ कि जरूर इससे हंगामा खड़ा होगा, पांडुलिपि की चोरी कर ली गई। रेणुजी रेलवे बोर्ड के सदस्य थे, कटिहार से सभाकर वे घर आए, कटिहार में खाने में कुछ गड़बड़ी हो गई थी। कटिहार में ही तबीयत खराब हो गई, फारविशगंज के डॉ महानंद झा के यहाँ इलाज चल रहा था, हालत बिगड़ते देखकर ही अचेतावस्था में उन्हें पटना के अस्पताल में लाया गया। होश में आते ही लोकसभा चुनाव की घोषणा की जानकारी उन्हें अस्पताल में मिली। वे बड़े प्रसन्न हुए, जयप्रकाशजी की पहली सभा गांधी मैदान में हुई, उसमें वे डॉक्टर से बिना पूछे चुपचाप शामिल हुए थे। वे फिर अस्पताल से ही लोकतंत्र रक्षी साहित्य के माध्यम से लेखन कार्य कर जनप्रबोधन के कार्य में संलग्न रहे। उनके लिए ऑपरेशन की तारीख तय हुई थी 24 मार्च को। इधर 20 मार्च को पटना में चुनाव था। रेणुजी अस्पताल से वोट डालने चले आए, साथ में उनकी पत्नी लतिकाजी प्लास्टर लगे हाथ लिए हुई थी। उन्हें देखकर डॉ. शैलेन्द्रनाथ श्रीवास्तव ने पूछा कि ऐसी अवस्था में आप यहां क्यों आ गए? तो उन्होंने जबाव दिया कि 'आता कैसे नहीं, प्रजातंत्र की रक्षा के लिए आना ही था। मेरा ऑपरेशन तो 24 को है, तानाशाही का ऑपरेशन तो आज ही है। अगर तानाशाही नहीं हटी तो, मेरा ऑपरेशन सफल हो या असफल, क्या फर्क पड़ता है।' उन्हें यह सुखद समाचार प्राप्त हुआ था कि कांग्रेस की शर्मनाक हार हुई है और जनता सरकार बनने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। इस बीच लोकनायक जयप्रकाशजी उनसे मिलने अस्पताल पहुँचे तो वे उनसे अनुनय करने लगे कि कृपया करके मुझे देखने न आएं क्योंकि इसी समय को आप जनता की सेवा में लगाएं, देश को आपकी बहुत जरूरत है।

रेणु ने ऋण मुक्त होने के लिए कलम चलायी : जिस समय रेणु का जन्म हुआ, परिवार पर ऋण था। दादी माँ कहने लगी कि ऋण में जन्म लिया है, इसका नाम रिनुआ रखो, रिनुआ कहते-कहते रेणु नाम पड़ा। फणीश्वरनाथ पर सचमुच में समाज व धरती पर व्याप्त शोषण का ऋण था। उसी ऋण को उतारने के लिए वे लेखिनी को अपनाते हुए मानव अधिकरों के लिए लड़ते रहे। 1972 ई. में वे स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में बिहार विधान सभा के लिए चुनाव लड़े, नासमझ जनता ने उन्हें पराजय का मुँह दिखाया। पटना में रेणुजी से साहित्यकारों ने पूछा तो वे बोले कि चुनाव में हार गया पर गांवों से लिखने के लिए बहुत ही कच्ची सामग्री ले आया हूँ। उनके तीनों पुत्र पदम पराग राय 'वेणु', अपराजित राय 'अप्पू', दक्षिणेश्वर प्रसाद राय 'पप्पू' समाज कार्य में जुट गए, पढ़े-लिखे हैं, चाहते तो कोई सरकारी नौकरी भी कर सकते थे लेकिन वे समाज के प्रति अपना दायित्व समझकर ही सेवाकार्य में जुटकर शोषण व अन्याय के खिलाफ लड़ाइयाँ लड़ रहे हैं।

तड़-तड़, तड़ाक : रेणुजी ब्रिटिश औपनिवेशिक शासनकाल में पैदा हुए थे। बाल्यकाल से ही वे मुक्त हवा में सांस लेने के प्रयास में थे। उन दिनों बंदे मातरम बोलने पर बेंत की सजा मिलती, इसकी परवाह किए बिना ही उन्होंने अररिया हाइस्कूल में बंदे मातरम की जयबोल से कक्षा को गुंजायमान किया था तो उन्हें 7 बेंत की सजा हुई। अध्यापक तड़-तड़, तड़ाक बेंत खींचते रहे और वे बंदे मातरम बोलते रहे अंतत: गोरे अध्यापक को रूकना पड़ा था।

शोध केन्द्र बना रेणु गाँव  अपनी अमर कृतियों से देश-विदेश में पहचान बना चुके कथाशिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु का गांव औराही हिंगणा शोध केंद्र के रूप में तब्दील हो चुका है। गांव तो जर्जर हालत में है ही, मैला ऑंचल में वर्णित भोलापुर मठ भी खंडहर का रूप ले चुका है। साल का कोई भी महीना ऐसा नहीं होगा कि वहाँ देश-विदेश से शोधार्थी न पहुँचते हों। यही कारण है कि 'तीसरी कसम' फिल्म से प्रभावित होकर रेणु साहित्य पर शोध करने आए हाइडेल विश्वविद्यालय, जर्मनी की शोधार्थी हेडी शार्डोक ने मीडिया को बताया था कि रेणु की कृतियाँ पढ़ते हुए जैसी तस्वीर मन में उभरती है वही तस्वीर रेणु गांव में प्रत्यक्षत: देखने को मिली। इसी तरह औराही हिंगणा में रेणु साहित्य पर शोध करने आए टेक्सास विश्वविद्यालय, अमेरिका के शोधार्थी इयान वुल फर्ड कहते हैं कि वर्षों पूर्व रेणु ने जो ग्रामीण समस्या पर लिखा वह सच्चाई आज भी बरकरार है।
औराही हिंगणा गांव को आधार बनाकर लिखे मैला आंचल के शूल अब तक नहीं हटे, गांव में उनके घर तक पहुँचने के लिए ऊबर-खाबर कच्ची सड़क ही है। मुझे याद है कि बचपन में जब मैं औराही हिंगणा गया था तो फारविशगंज से पहले फणीश्वरनाथ रेणु द्वार था। उसी द्वार को ध्यान में रखकर इसबार भी रेणुजी के घर पहुँचना चाहता था। रास्ते में वह द्वार मिला ही नहीं, फोर लेन पर भागती मेरी गाड़ी फारविशगंज जा पहुँची, तो वहाँ पता चला कि पथ निर्माण विभाग वालों ने उस द्वार को गिरा दिया है। सरकार सांस्कृतिक मूल्यों को बचाने का चाहे जितना भी बखान करें लेकिन रेणु के गांव में संग्रहालय तक नहीं बन पाया है। पदमा राय को इस बात का आज भी मलाल है कि बड़े-बड़े साहित्यकार व शोद्यार्थी रेणुजी पर शोध करने यहाँ आते हैं पर गांव में एक भी पुस्तकालय व शोध केंद्र नहीं बन पाया है।

संदर्भ :
1.रेणु फणीश्वरनाथ 'मैला ऑंचल' राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली-110002 पृष्ठ 126
2.रेणु :संस्मरण और श्रध्दांजली, संपादक-प्रो. रामबुझावन सिंह, डॉ. प्रो. रामवचन राय, नवनीता प्रकाशन, दरियापुर, पटना-800004, पृष्ठ 48
3.रेणु फणीश्वरनाथ 'मैला ऑंचल' राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली-110002 पृष्ठ 140