Monday, June 4, 2012

विकास और पर्यावरण संतुलन


विकास और पर्यावरण संतुलन
-अमित कुमार विश्‍वास
आधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी व चरम विकास के इस दौर में एक ओर हम पाते हैं कि बड़ी-बड़ी इमारतें, शानो-शौकत, चमचमाते शॉपिंग मॉल्स और उच्च तकनीक से बने गगनचुम्बी पुल, जिन पर नजर आती हैं दूर तक दौड़ती हुई नई-नई महंगी गाड़ियां। दूसरी ओर नजर आते हैं असहाय किसान, मजदूर जो विवश हैं आत्महत्या करने के लिए, अवैधानिक रूप से मरते हुए दलित, अपनी ही कृषि भूमि और जीविका से बेदखल की हुई जनजातियां, जगमगाते शहरों की गलियों व लाल बत्‍ती चौराहे पर भीख मांगते छोटे-छोटे बच्चे।
विकास सिण्‍ड्रोम ने पर्यावरणीय संकट उत्‍पन्‍न किए हैं। विकास के प्रारूप के तहत जिसे हम मुख्‍यधारा का विकास कहते हैं यह देखना उचित होगा कि क्‍या विकास से सभी लोगों का हित सधता है या नहीं। विकास क्‍या हमारे व्‍यक्तित्‍व को विकसित करने में सहायक हो पा रहा है तथा समाज के समस्‍त वर्गों तक उसका लाभ पहुंच पा रहा है या नहीं।
कुछ बौद्धिक इस बात के पक्षधर दिखते हैं कि वर्तमान व्‍यवस्‍था व भूमंडलीकरण के इस दौर में विकास तो हो रहा है। लेकिन आर्थिक उदारीकरण और निजीकरण रूपी जिन सीढ़ियों का इस प्रक्रिया में प्रयोग किया जा रहा है, उससे पर्यावरणीय स्थिति विकट होती जा रही है और यह माना जा रहा है कि जिस विकास के पथ पर हमलोग चल पड़े हैं, वह आम आदमी के विकास में कितना सहयोगी है।
आज विकास के विकल्‍प के रूप में टिकाऊ विकास या 'स्वपोषी विकास' (Sustainable Development), की बात की जा रही है। यह टिकाऊ विकास, विकास की वह अवधारणा है जिसमें विकास की नीतियां बनाते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि मानव की न केवल वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति हो, वरन् अनन्त काल तक मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति सुनिश्चित हो सके। इसमें प्राकृतिक पर्यावरण की सुरक्षा पर विशेष बल दिया जाता है।
दुनिया ने विकास की गति के जिस रफ्तार को पकड़ा है उस रफ्तार से पीछे आना संभव नहीं है। इसलिए पर्यावरण और विकास के मौलिक अवधारणा का अंतर्द्वन्द्ध अब स्पष्ट रूप से सामने प्रस्‍तुत है। किसी ने कहा है कि विकास का हर सोपान बर्बरता के नए आयाम को पैदा करता है। विकास की यह समझ, विकास के मायनों को ही उलट देती है और उसके प्रति नकारात्मक भाव पैदा करती है। यह गति और समय के नियम के भी खिलाफ है। विकास की अवधारणा एक सापेक्षिक अवधारणा है। मानव जाति के जीवन स्तर में गुणात्मक परिवर्तन ही सही मायने में विकास है।
दरअसल, मानव जाति पर्यावरण के जैवमंडल का अटूट हिस्सा है। इन दोनों के बीच अंतर्संबंध है, जो एक-दूसरे को गहरे तक प्रभावित करने वाला है। मनुष्य अपने उत्पत्ति के साथ ही प्रकृति पर निर्भर रहा है परंतु प्रकृति के ऊपर यह निर्भरता मौजूदा समय में भयावह रूप ले चुकी है। यह निर्भरता अब केवल आवश्यकताओं तक सीमित न रह कर अंधाधुंध विकास की उस धारा से जुड़ गई है जो इंसान की अनिवार्य जरूरतों के साथ-साथ व्यवस्था जनित आवश्यकताओं से जुड़ी हुई हैं। विकास की जो धारा बाजारवादी प्रवृत्ति की शिकार  और पोषक है वह उत्पाद को लेकर कृत्रिम उपभोक्तावाद पैदा करने वाली है। विकास की इस धारा में उत्पादन इंसान की जरूरतों के अलावा बाजार के लिए भी केन्द्रीकृत हो चुका है। मांग और आपूर्ति के बाजारवादी सिद्धांत ने अंधाधुंध उत्पादन को प्रोत्साहित किया है। ऊर्जा संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन जारी है।
 आज हम यह स्पष्ट देख रहे हैं कि बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए राज्य में गरीब लोगों की जड़ें खोदी जा रही हैं, शायद इस उम्मीद में कि ये कंपनियां राज्य में कुछ चमत्कारी परिवर्तन करेंगे, जो वहां की सरकार खुद करने में असमर्थ है। उसे निगमित पूंजीवाद के आगे समर्पण करने के अतिरिक्त और कोई विकल्प सूझ नहीं रहा है। विकास के इस दौर में भूमंडलीकरण का यह रूप टीना सिंड्रोम’ (टीआईएनए-इसका कोई विकल्प नहीं) को प्रदर्शित करता है। दरअसल, टीना सिंड्रोम इस बात का समर्थन करता है कि निगम आर्थिक वृद्धि की दर बढ़ाकर गरीबी दूर करेंगे। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्वबैंक, एशियन विकास बैंक (एडीबी) जैसी अंतरराष्‍ट्रीय वित्‍तीय संस्‍थाओं ने भी विभिन्न रूपों में इसी तथ्य का समर्थन किया है। अब मार्क्सवादी नेताओं का एक बड़ा हुजूम भी इसी बात का राग अलाप रहा है।
आज संम्पूर्ण उद्योग धंधों का विस्तार प्राकृतिक संसाधनों के दोहन पर टिका है। विकास के इस मॉडल के कारण दुनिया के सामने ग्लोबल वार्मिंग की समस्या खड़ी हो गई है। नदियों का प्रदूषित होना, पेयजल का संकट, जमीन की उर्वरा शक्ति का कम होना, हिंसा का खतरा, जंगल का कम होना आदि वैश्विक संकट हमारे समक्ष हैं। अतितीव्र गति से जनसंख्‍या वृद्धि के कारण तथा नई औद्योगिक परियोजनाओं के लिए जंगलों को काटा जा रहा है। औद्योगीकरण की वर्तमान प्रक्रिया के पूर्व भी कृषि योग्य भूमि का क्षेत्रफल बढ़ाने के लिए सदियों से वनों को काटा जाता रहा है लेकिन अब यह कटान खतरनाक स्तर पर पहुंच गई है। इससे साबित होता है कि इंसान की प्रकृति पर किसी भी तरह से निर्भरता उसे नकारात्मक रूप में प्रभावित करने वाली है। 
वर्तमान परिदृश्‍य को देखें तो हम पाते हैं कि प्रदूषण गंभीरतम पर्यावरणीय समस्या है जो आज एक विश्वव्यापी समस्या बन गई है। पशु-पक्षी, पेड़-पौधे और इंसान सब उसकी चपेट में हैं। उद्योगों और मोटरवाहनों का बढ़ता जहरीला उत्सर्जन और वृक्षों की निर्मम कटाई प्रदूषण के कुछ प्रमुख कारण हैं। पर्यावरण चिंतक बालसुब्रमण्‍यम अपने एक आलेख में कहते हैं कि कारखानों, बिजलीघरों और मोटरवाहनों में खनिज ईंधनों (डीजल, पेट्रोल, कोयला आदि) का अंधाधुंध प्रयोग होता है। इनको जलाने पर कार्बन डाइआक्साइड, मीथेन, नाइट्रस आक्साइड आदि गैसें निकलती हैं। इन गैसों के चलते हरितगृह प्रभाव नामक वायुमंडलीय प्रक्रिया को बल मिलता है, जो पृथ्वी के तापमान में वृद्धि करता है यही कारण है कि पृथ्वी इतनी गर्म हो गई है जितनी पहले कभी नहीं थी। तापमान में परिवर्तन से मौसम में अवांछनीय बदलाव देखने को मिल रहे हैं-मानसून का समय पर न आना, असमय बारिश, बेतहाश गर्मी पड़ना आदि। हमें यह जान लेना चाहिए कि औद्योगिक गतिविधियों से क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) नामक मानव-निर्मित गैस का उत्सर्जन होता है जो उच्च वायुमंडल के ओजोन परत को नुकसान पहुंचाती है। यह परत सूर्य के खतरनाक पराबैंगनी विकिरणों से हमें बचाती है। क्‍लोरो फ्लोरो कार्बन (सीएफसी) हरितगृह प्रभाव में भी योगदान करते हैं। इन गैसों के उत्सर्जन से पृथ्वी के वायुमंडल का तापमान लगातार बढ़ रहा है। साथ ही समुद्र का तापमान भी बढ़ने लगा है। बालसुब्रमण्‍यम ने लिखा है कि पिछले सौ सालों में वायुमंडल का तापमान 3 से 6 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है। ग्लेशियर और ध्रुवों पर मौजूद बर्फ पिघल रही है। अनुमान लगाया गया है कि इससे समुद्र का जल एक से तीन मिमी प्रतिवर्ष की दर से बढ़ेगा। अगर समुद्र का जलस्तर दो मीटर बढ़ गया तो मालद्वीप और बंग्लादेश जैसे निचाईवाले देश डूब जाएंगे। अपने देश के कई इलाके इसकी चपेट में आ जाएंगें। इसके अलावा मौसम में बदलाव आ सकता है- कुछ क्षेत्रों में सूखा पड़ेगा तो कुछ जगहों पर तूफान आएगा और कहीं भारी वर्षा होगी। प्रदूषक गैसें मनुष्य और जीवधारियों में अनेक जानलेवा बीमारियों का कारण बन सकती हैं। एक शोध अध्‍ययन के अनुसार वायु प्रदूषण से केवल 36 शहरों में प्रतिवर्ष 51,779 लोगों की अकाल मृत्यु हो जाती है। कोलकाता, कानपुर तथा हैदराबाद में वायु प्रदूषण से होने वाली मृत्युदर पिछले 3-4 सालों में दुगुनी हो गई है। एक अनुमान के मुताबिक हमारे देश में प्रदूषण के कारण हर दिन करीब 150 लोग मरते हैं और सैकड़ों लोगों को फेफड़े और हृदय की जानलेवा बीमारियां हो जाती हैं।
यहां यह कहने में गुरेज नहीं है कि आज विज्ञान और तकनीक के माध्यम से इंसानी जीवन की बेहतरी के बहाने विकास का जो ताना-बाना बुना जा रहा है, दुर्भाग्य से उसका सबसे बुरा असर मानव सभ्यता की मेरुदंड प्रकृति पर ही पड़ रहा है। सूचना तकनीक के मौजूदा दौर में दुनिया ई-कचरे के ढ़ेर में तब्‍दील होता जा रहा है। जो पर्यावरण को लंबे समय तक और गहरे तक प्रदूषित करने वाला है। यह ई-कचरा अक्षरणीय प्रदूषक है। लेकिन यह चुनौतियां ऐसी हैं जो केवल मौजूदा व्यवस्था के साथ नहीं जुड़ी हैं। मसलन् क्या बाजार आधारित व्यवस्था खत्म होने से पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले ई-कचरे का निस्तारण हो जाएगा या यह पैदा ही नहीं होगा? यदि इससे निबटने के लिए हम मोबाइल या अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का इस्तेमाल बंद कर देंगे तो क्या पॉलीथीन या प्लास्टिक के अन्य कचरों की एक अन्य पर्यावरणीय समस्या खत्म हो जाएगी। पर्यावरण हितैषी कल्पना करते हैं कि प्लास्टिक का प्रयोग बंद हो जाए और फर्नीचर प्लास्टिक के बजाए लकडि़यों का बनाया जाए तो क्या ऐसे में वनों पर निर्भरता बढ़ नहीं जाएगी। यहीं पर मानवीय चेतना की भूमिका है जो मौजूदा व्यवस्था में भी और बाजार से इतर ढांचे में भी महत्वपूर्ण हो जाती है। समाजशास्‍त्री जूलीइन स्‍टीवर्ट ने सांस्‍कृतिक विकास की चर्चा करते हुए कहा है कि विकास का पैमाना यही होगा कि प्रति व्‍यक्ति ऊर्जा कितनी खपत करता है। साथ ही, समाज में प्रति व्‍यक्ति के वेस्‍टेज से उसके विकास का आकलन किया जाएगा। आज अपार्टमेंट कल्‍चर में हम इलेक्‍ट्रॉनिक्‍स सामान खरीदते चले जाते हैं। इसके कई कारण हैं यथा: नए मॉडल का बाजार में आ जाना या फिर ऑफर मिलना। चूंकि वेस्‍टेज को खपाने में इतनी दिक्‍कतें आ रही हैं, पृथ्‍वी सहन नहीं कर पा रही है। विकसित देशों का मानना है कि तीसरी दुनिया के लोग पृथ्‍वी पर भार के समान हैं। चूंकि विकसित देशों के लोग टेक्‍नोलो‍जिकली समृद्ध हैं अतएव उनका कहना है कि लाइफ बोट में उतने ही लोग सवार हों जितने कि पृथ्‍वी सहन कर सकें। पाकिस्‍तानी अर्थशास्‍त्री प्रो.नरिबुड हक का विकसित देशों के द्वारा पृथ्‍वी पर कचरा फैलाने के संदर्भ में कहना है कि पहले उस लाइफ बोट से आप उतरिये क्‍योंकि आप ही पृथ्‍वी पर सबसे ज्‍यादा कचरा फेंकते हैं।
पर्यावरणवादी चिंतक तारेन्‍द्र किशोर कहते हैं कि अभी मानवीय चेतना बाजारवाद के प्रभाव में है और इंसान एक उपभोक्ता और ग्राहक की तरह इस्तेमाल हो रहा है। विकास के संदर्भ में आर्थिक विकास जितना महत्वपूर्ण नहीं है उतना महत्वपूर्ण है मानव विकास। यहां यह कहना समीचीन होगा कि पृथ्वी पर मौजूद प्राकृतिक संसाधन सीमित हैं। ऐसे में, बढ़ती जनसंख्या और उसके साथ जुड़ी उपभोक्ता दर भी एक बड़ी समस्या है। पृथ्वी एक ऐसा पात्र है जिसमें से हम निकाल तो सकते हैं लेकिन उसमें कुछ डाल नहीं सकते हैं। यानि उपलब्ध प्राकृतिक संसाधन अत्यधिक इस्तेमाल होने से समाप्त होने के कगार पर है। विकसित देशों और विकासशील देशों के बीच हो रही बहस ने जनसंख्या और उपभोक्ता दर के बीच विरोधाभास को उजागर किया है। भोगवादी सभ्‍यता वाली विकसित देशों के विकास का मॉडल यही रहा तो 27 पृथ्वियां और लगेंगी। ऐसी स्थिति में गांधी के विकास मॉडल की सार्थकता पर हमें ध्‍यान देने की जरूरत है। गांधी कहते हैं कि हमारी वसुंधरा सबका भरण-पोषण कर सकती है लेकिन एक लोभी का भरण-पोषण करने में यह असमर्थ है। बाजारवादी तबका लोभी संस्‍कृति को विकसित कर रही है।  
विकसित देश बड़ी जनसंख्या का हवाला देते हुए विकासशील देशों को पर्यावरण के प्रति पहली जिम्मेवारी लेने की बात कर रहे हैं वही विकासशील देश अधिक उपभोक्ता दर का हवाला देते हुए विकसित देशों से ज्यादा जिम्मेदारी उठाने की बात कर रहे हैं। सच्‍चाई तो यह है कि यदि दुनिया के लिए एक जैसी उपभोक्ता दर की कल्पना की जाती है तो यह पृथ्वी पर अत्यधिक दबाव डालने वाला होगा। दुनिया को ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों और विज्ञान तथा तकनीक के नवाचार की तरफ अग्रसर होना होगा क्योंकि दुनिया विकास के पीछे भाग रही है। पर्यावरणीय संकट की समस्या को सभी  छोटे-बड़े देशों को समय रहते गंभीरता से लेना होगा और सुरक्षित पर्यावरण के मसले को विनाशकारी चुनौती के रूप में ईमानदारी से स्वीकारना होगा। यह सही है कि हमलोग विकास से विमुख नहीं हो सकते हैं पर उसके दुष्‍प्रभावों को कम जरूर कर सकते हैं। इसके लिए हमें अपने आदतों में परिवर्तन लाना होगा। प्राथमिक शिक्षा के दौरान ही बच्‍चों को पर्यावरण के प्रति सजग बनाने के लिए संदेश देना होगा। हमें उस विकास का विरोध करना है, जो निगमों पर आधारित है और विकास के नाम पर पर्यावरणीय आतंक का पोषण करती है। मेधा पाटकर का नर्मदा बचाओ आंदोलन, सुन्‍दरलाल बहुगुणा का चिपको आंदोलन, वंदना शिवा की सेन्‍द्रीय खेती, अन्‍ना हजारे का रालेगांव सिद्धि आदर्श गांव, जल पुरूष राजेन्‍द्र सिंह राणा का जल संरक्षण आदि ज्ञान के हर अनुशासन में पाठ्यक्रम का हिस्‍सा बने। अंतत: हमें पर्यावरण के अनुरूप विकास के विकल्‍प को तलाशने की जरूरत है। विकास और पर्यावरण के अनुकूल प्रयोग कर समाज का उन्‍नयन करने में हमें अपनी महती भूमिका अदा करनी चाहिए। (लेखक महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय, वर्धा में सहायक संपादक के रूप में कार्यरत हैं।)


Tuesday, May 15, 2012

हिंदी विश्‍वविद्यालय, वर्धा बना शमशेर का स्‍थायी घर


विश्‍वविद्यालय को मिला दुर्लभ पाण्‍डुलिपियों के अलावा शमशेर साहित्‍य का स्‍वत्‍वाधिकार भी, आज का दिन मील का पत्‍थर -कुलपति
वर्धा, हिंदी के सुपरिचित कवि केदार नाथ सिंह ने कहा है कि शमशेर बहादुर सिंह विलक्षण दोआब के कवि हैं। उनकी रचनाओं में हिंदी और उर्दू की दोभाषिक संस्‍कृतियां मिलती हैं। शमशेर जितने हिंदी के कवि थे उतने ही उर्दू के। डॉ. केदार नाथ सिंह महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय के स्‍वामी सहजानंद सरस्‍वती संग्रहालय में कालजयी कवि शमशेर बहादुर सिंह की 19वीं पुण्‍यतिथि पर आयोजित गरिमामय समारोह को संबोधित कर रहे थे। इस समारोह में प्रसिद्ध लेखिका डॉ. रंजना अरगड़े ने शमशेर की प्रकाशित-अप्रकाशित रचनाओं की पांडुलिपियां, चित्रकृतियां और उनके निजी उपयोग की सामग्री तथा शमशेर की रचनाओं की कापीराइट विश्‍वविद्यालय को सौंपी।   
       डॉ. केदार नाथ सिंह का कहना था कि शमशेर ने एक नयी काव्‍य भाषा दी। उर्दू के कई प्रतीक शमशेर की हिंदी कविता में रच-बस गए। शमशेर ने अपनी परंपरा खुद बनायी। परंपरा के तत्‍व, राग, संगीत को मिलाकर उन्‍होंने विलक्षण दोआब की भाषा रची। शमशेर ने एक नयी काव्‍य भाषा दी। डॉ. सिंह ने शमशेर पर अपने कई संस्‍मरण भी सुनाए। उन्‍होंने शमशेर की सारी सामग्री विश्‍वविद्यालय को देने के लिए रंजना अरगड़े के प्रति आभार प्रकट किया और कहा कि  इन पाण्‍डुलिपियों में एक नहीं, कई शमशेर छिपे हुए हैं। कवि और उपन्‍यासकार डॉ. गंगा प्रसाद विमल का कहना था कि इस विश्‍वविद्यालय का संग्रहालय हिंदी का अदभुत संग्रहालय बनने की ओर निरंतर आगे बढ़ रहा है। शमशेर की इतनी सामग्री विश्‍वविद्यालय में आने के बाद लक्ष्‍य प्राप्ति में बहुत मदद मिलेगी। प्रसंगवश बता दें कि विश्‍वविद्यालय के संग्रहालय में कई प्रमुख लेखकों की पाण्‍डुलिपियां सुरक्षित हैं। वरिष्‍ठ कथाकार विजय मोहन सिंह का कहना था कि शमशेर शब्‍दों में नहीं चित्रों में बोलते थे। वरिष्‍ठ आलोचक डॉ. निर्मला जैन का कहना था कि शमशेर की सारी सामग्री हिंदी विश्‍वविद्यालय के पास आने से उसकी बेहतर ढंग से रक्षा हो सकेगी और दूसरे लेखक भी अपनी पाण्‍डुलिपियां इस विश्‍वविद्यालय को देने की ओर प्रेरित होंगे। डॉ. जैन का कहना था कि शमशेर की रचनाओं में कोई पूर्व नियोजित संरचना नहीं मिलती। इसकी पुष्टि के लिए उन्‍होंने नामवर सिंह द्वारा लिए गए शमशेर के साक्षात्‍कार को उद्धृत किया। कार्यक्रम को संबोधित करते हुए वरिष्‍ठ कथाकार विजय मोहन सिंह का कहना था कि शमशेर शब्‍दों में नहीं चित्रों में बोलते थे। कवि एवं फिल्‍मकार नरेश सक्‍सेना ने कहा  कि शमशेर शिल्‍प सचेत सौंदर्य के अप्रतिम कवि हैं। आलोचक शंभु गुप्‍त ने कहा  कि शमशेर जटिल नहीं, सरल कवि हैं।
          इस अवसर पर अपने भावविह्वल संबोधन में डॉ.रंजना अरगड़े ने कहा कि शमशेर की सारी सामग्री हिंदी विश्‍‍वविद्यालय को सौंप कर और कॉपीराइट के बारे में कुलसचिव डॉ. के. जी. खामरे के साथ एमओयू पर दस्‍तखत करके वे अपने को जितना मुक्‍त अनुभव कर रही हैं, उतना ही खालीपन भी महसूस कर रही हैं। कार्यक्रम की अध्‍यक्षता करते हुए कुलपति विभूति नारायण राय ने कहा कि संग्रहालय के लिए आज का दिन मील का पत्‍थर है। भारत में शमशेर के साहित्‍य पर जो भी शोध करेगा, उसे यहां आना पडेगा। उन्‍होंने घोषणा की कि शमशेर की इस सामग्री की प्रदर्शनी कोलकाता, इलाहाबाद समेत देश के विभिन्‍न हिस्‍सों में भी लगायी जाएगी। उन्‍होंने कहा कि रंजना अरगड़े ने शमशेर की जो पाण्‍डुलिपियां विश्‍वविद्यालय को सौंपी हैं, उनमें एक तिहाई अप्रकाशित है और उन्‍हें पुस्‍तक रूप में प्रकाशित करने के पहले विश्‍वविद्यालय की पत्रिका बहुवचन में प्रकाशित किया जाएगा। कुलपति ने ऐलान किया कि शमशेर की रचनावली रंजना अरगड़े के संपादन में निकाली जाएगी। प्रसंगवश बता दें कि विश्‍वविद्यालय के संग्रहालय में कई प्रमुख लेखकों की पाण्‍डुलिपियां सुरक्षित हैं। इस अवसर पर शमशेर पर एक फिल्‍म भी दिखायी गयी। कार्यक्रम के आखिर में प्रतिकुलपति प्रो. . अरविंदाक्षन ने धन्‍यवाद ज्ञापन किया। समारोह का अत्‍यंत ही प्रभावी संचालन प्रो. सुरेश शर्मा ने किया।