Saturday, October 29, 2011

फि़जा में फैल गया ‘फ़ैज़’ का फ़ैज़

वर्धा हिंदी विवि द्वारा फ़ैज़ की जन्‍मशती पर आयोजित अंतरराष्‍ट्रीय समारोह में

अजीम शायर फ़ैज़ को याद करने जुटे देश-विदेश के अदीब व शायर

शहर इलाहाबाद और यहां की अदबी रवायत व गंगा-जमुनी तहज़ीब के लिए 22 व 23 अक्‍टूबर का दिन यादगार बन गया क्‍योंकि ‘हम मेहनतकश जगवालों से जब अपना हिस्‍सा मांगेंगे/ इक खेत नहीं देश नहीं, सारी दुनिया मांगेंगे,/ बोल की लब आजाद हैं तेरे.../ बोल की जां अब तक तेरी है...’ जैसी विश्‍व क्‍लासिक शायरी रचने वाले फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के जन्‍मशती के अवसर पर महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय, वर्धा व प्रगतिशील लेखक संघ के सहयोग से दो दिवसीय अंतरराष्‍ट्रीय समारोह का आयोजन किया गया जिसमें पाकिस्‍तान, जर्मनी सहित भारत के नामचीन अदीबों ने विमर्श किया।

‘शख्शियत: फ़ैज़ अहमद फ़ैज़’ पर आधारित उद्घाटन सत्र की अध्‍यक्षता करते हुए विवि के कुलाधिपति व हिंदी के शीर्ष आलोचक नामवर सिंह ने फ़ैज़ को मद्धम स्‍वर में दिलों में आग भर देने वाला शायर बताते हुए कहा कि अवाम में क्रांतिकारी चेतना जगाने की कुवत रखने वाले फ़ैज में गुरूर जरा भी नहीं था। लोकप्रियता की ऊंचाई पर होने के बावजूद वे बेहद शालीन थे। उन्‍होंने इस बात पर प्रसन्‍नता जाहिर की कि वर्धा हिंदी विवि फ़ैज़ की जन्‍मशती पर इतना बड़ा कार्यक्रम करनेवाला पहला विश्‍वविद्यालय बना। साथ ही इलाहाबाद में कार्यक्रम करना इसलिए भी सार्थक रहा क्‍योंकि गंगा-जमुनी तहज़ीब का असली संवाहक यही स्‍थल है। फ़ैज़ की बेटियां सलीमा हाशमी और मुनीज़ा हाशमी व पाकिस्‍तान की सुप्रसिद्ध लेखिका किश्‍वर नाहिद की मौजूदगी ने हिन्‍द-पाक के अवामी और तहज़ीबी रिश्‍तों को नए जोश और मोहब्‍बत से भर दिया। इलाहाबाद संग्रहालय का सभागार अदब और तहजीब से जुड़े लोगों से खचाखच भरा था। यह इस बात की तस्‍दीक करता है कि फ़ैज़ की दीवानगी किस कदर आम लोगों पर हावी है। बकौल फ़ैज़ की बेटियां, यह सिर्फ और सिर्फ इसलिए कि फ़ैज़ का किसी से नफ़रत का रिश्‍ता नहीं था। वह इंसानियत और मोहब्‍बत की नुमाइंदी करते थे। फ़ैज़ की दोनों बेटियों ने संगमी नगरी में मिले प्‍यार और मोहब्‍बत पर खुशी जाहिर की। कहा कि यहां का माहौल देखकर वे समझ सकती हैं कि फ़ैज़ के दिल में हिन्‍दुस्‍तान के प्रति इतनी मोहब्‍बत क्‍यों थी। बतौर वक्‍ता नाहिद किश्‍वर बोलीं, फ़ैज़ हमेशा सीखने की कोशिश करते थे और दूसरों के हूनर को सराहते भी थे, यह बड़ी शख्शियत की पहचान है। उनसे मोहब्‍बत और इंसानियत की जो सीख मिली वह बड़े काम की निकली। प्रो.अकील रिजवी ने फ़ैज़ से जुड़े संस्‍मरण सुनाते हुए सन् 1981 में इलाहाबाद विवि में हुए कार्यक्रम का जिक्र किया और बताया कि तमाम आशंकाओं के बावजूद फ़ैज़ को सुनने के लिए इतना बड़ा मज़मा जुटा जो फिर कभी दिखायी नहीं दिया। उन्‍होंने कहा कि हिंदी में फ़ैज़ की इतनी बड़ी अहमियत है जितनी शायद उर्दू में भी नहीं।

वर्धा हिंदी विवि द्वारा ‘बीसवीं शताब्‍दी का अर्थ : जन्‍मशती का सन्‍दर्भ’ श्रृंखला के तहत ‘फ़ैज़ एकाग्र’ पर आयोजित समारोह में स्‍वागत वक्‍तव्‍य देते हुए कुलपति विभूति नारायण राय ने कहा कि फ़ैज़ भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे बड़े कवियों में से एक हैं और हमारी साझा संस्‍कृति के उत्‍कृष्‍टतम नमूना हैं। समकालीन संदर्भ में फ़ैज़ जैसे बड़े कवि पर विमर्श होने से हम लाभान्वित होंगे। बीसवीं सदी में कई ऐसे रचनाकार हुए जो परिवर्तनगामी चेतना से समकालीन चुनौतियों से लड़ र‍हे थे। कुलाधिपति नामवर सिंह ने जिम्‍मेदारी सौपीं थी कि जिन रचनाकारों की जन्‍मशती है, उनपर समग्र रूप से वैचारिक विमर्श हो। वर्धा से शुरू हुई इस श्रृंखला के तहत यह विवि का छठवां आयोजन है। इसके पूर्व नागार्जुन, उपेन्‍द्र नाथ अश्‍क, केदार नाथ अग्रवाल और भुवनेश्‍वर पर क्रमश: पटना, इलाहाबाद, बांदा एवं इलाहाबाद में वैचारिक विमर्श के लिए कार्यक्रम हुए और अब इलाहाबाद में फ़ैज़ पर विमर्श कर रहे हैं। ‘शख्शियत: फ़ैज़ अहमद फ़ैज़’ विषय पर आधारित उद्घाटन सत्र में मंच पर वे लोग मौजूद थे जिनका फ़ैज़ से या तो निजी रिश्‍ता था या जिन्‍होंने फ़ैज़ को बहुत करीब से देखा हो, उनसे मिले हों। वक्‍ताओं ने जब फ़ैज़ की शख्शियत पर अपनी बात रखनी शुरू की तो श्रोता खुद-ब-खुद जुड़ते चले गए। क्‍योंकि वहां मौजूद लगभग हर शख्‍स फ़ैज़ से दिली लगाव महसूस कर रहा था, उनकी शायरी या नज्‍म़ से वाकिफ था। समारोह का संचालन करते हुए प्रलेस के अली जावेद ने कहा कि हम किसी भी शायर को छोटा करके नहीं देखते हैं। यह फैज ही है जिसने कि मजाज पर लिखा कि इंकलाब को नगमा बनाना हमने मजाज से सीखा है। मजाज को भी हम उतना ही एहतराम देते हैं जितना कि फ़ैज़ को। वर्धा हिंदी विवि के इलाहाबाद केन्‍द्र के प्रभारी व ‘बीसवीं शताब्‍दी का अर्थ : जन्‍मशती का सन्‍दर्भ’ श्रृंखला के संयोजक प्रो. संतोष भदौरिया ने आभार व्‍यक्‍त करते हुए कहा कि यह सभागार बहुत छोटा पड़ गया है पर फ़ैज़ के चाहने वालों का दिल बड़ा है। हम खुशनसीब हैं कि इतने बड़े अदीबों को सुना तथा फ़ैज़ की दोनो बेटियों को न सिर्फ देखा बल्कि उनको सुना भी।

पाकिस्‍तान की सु्प्रसिद्ध क‍वयित्री व लेखिका नाहिद किश्‍वर तथा पटना के खगेन्‍द्र ठाकुर की संयुक्‍त अध्‍यक्षता में प्रतिरोध की कविता और फ़ैज़ ‘लाजि़म है कि हम भी देखेंगे’ पर आधारित द्वितीय अकादमिक सत्र में वक्‍ताओं ने वैचारिक विमर्श किया। खगेन्‍द्र ठाकुर बोले, फ़ैज़ जैसे शायर के लिए प्रोटेस्‍ट बहुत हल्‍का शब्‍द है। वे इन्‍कलाब के शायर हैं। आज कविता में इन्‍कलाब की चर्चा होना बंद हो चुकी है। खासकर हिंदी कविता में मजदूरों के पसीने की गंध नहीं आ रही है। जहां फ़ैज़ ने इश्‍क पर शायरी लिखी वहीं उन्‍होंने इन्‍कलाब पर भी लिखा। फ़ैज़ जिस दौर में रहते थे वह इंकिलाबी दौर था। हम देख रहे हैं कि आज का दौर बदल गया है। इस पूंजीवादी व्‍यवस्‍था व नव औपनिवेशिक ताकतों के खिलाफ हम फ़ैज़ को एक विरासत के रूप में पाते हैं, हमें अपने लेखन में प्रतिरोध की चेतना से लबरेज होना चाहिए। उन्‍होंने कहा कि आधुनिक युग में जनता का हस्‍तक्षेप समाज को बदलने के लिए होना चाहिए। बकौल नाहिद किश्‍वर, फ़ैज़ हमेशा आम अवाम के लिए लिखते थे। उन्‍होंने कहा कि अच्‍छी शायरी वही है जो हर दौर के हालात को बयां कर दे। समकालीनता में उठ रहे दर्द के लिए उनकी शायरी सटीक प्रतीत होती है। फ़ैज़ को उर्दू अदब के चश्‍मे से नहीं देखता हूं, का जिक्र करते हुए लखनऊ से आए रमेश दीक्षित ने कहा कि उनकी कविता में आजादी की अनुगूंज थी। उन्‍होंने फिलीस्‍तीन, नेपाल, इंडोनेशिया सहित कई देशों में तानाशाही के खिलाफ चल रहे आजादी के लिए कविता लिखी। उन्‍होंने कहा कि वे तो जुर्म के खिलाफ लड़ने वाले शायर थे। अविनाश मिश्र ने कहा कि फ़ैज़ ने सामंतवाद, उपनिवेशवाद, लियाकत अली खां, जियाऊल हक जैसे सियासतों के तानाशाही को झेला था। उनकी शायरी आम आवाम से जुड़ती हैं। दुनिया में जहां भी अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर पर नव उपनिवेशवादी ताकतों के खिलाफ संघर्ष हो रहे हैं, फ़ैज़ और भी प्रासंगिक लगते हैं। कवि बद्री नारायण ने कहा कि फैज की कविता में प्रतिरोध की चेतना दिखाई देती है। फ़ैज़ कहते हैं कि कातिल मेरे पास रहो। यह प्रतिरोध कोई छिछला नहीं है। 1950 के दौर में जब पाकिस्‍तान का समाज व देश बन रहा था और हमारा मोह भंग हो रहा था। वे मोहभंग में भी कविता रचते हैं। फ़ैज़ को दुनिया के परिवर्तन का कवि बताते हुए उन्‍होंने कहा कि वे सामाजिक संघर्षों से जूझते हुए सीमांत प्रदेशों में गाये जाने वाले लोक गीतों की श्रृंखला को जोड़ते हैं। भोपाल के राजेन्‍द्र शर्मा ने कहा कि फ़ैज़ की शायरी को किसी मुल्‍क से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। जर्मनी से आए आरिफ नकवी ने फ़ैज़ को आम आदमी के दर्द को बयां करने वाला शायर बताया। कार्यक्रम में ज़फर बख्‍त ने वैचारिक विमर्श को आगे बढ़ाते हुए कहा कि फ़ैज़ इंसानियत के हक़ के लिए लड़ते थे। मंच का संचालन प्रो.ए.ए. फातमी ने किया तथा जयप्रकाश धूमकेतु ने आभार व्‍यक्‍त किया।

अंतरराष्‍ट्रीय समारोह के दूसरे दिन फ़ैज़ की बेटी सलीमा हाशमी व शमीम फ़ैज़ी की संयुक्‍त अध्‍यक्षता में फ़ैज़: गद्य के हवाले से ‘बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे’ पर आधारित अकादमिक सत्र में शाहिना रिज़वी, अबू बक़र आज़ाद, अजीजा बानो ने बतौर वक्‍ता के रूप में वैचारिक विमर्श किया। सलीमा हाशमी ने वालिद के साथ बिताए अनुभवों को साझा करते हुए बताया कि हिन्‍दुस्‍तान-पाकिस्‍तान बंटवारे के दर्द को खत्‍म करने की अपील की और फ़ैज़ के उन वाकयों व ख़तों का जिक्र किया कि, फ़ैज़ ने अपनी पत्‍नी एलिस से आवामी एकता और इंसानियत की हिफाजत को लेकर चिंता जताई थी साथ ही मुल्‍क के बंटवारे पर भी गहरा अफसोस जाहिर करते रहे। मुल्‍क विभाजन के बाद अम्‍मी को एक पत्र में वे लिखते हैं कि डार्लिंग ब्रिटिश अपने मंसूबों पर कामयाब हो गया और हम बंट गए। ब्रिटिश इससे बड़ा कोई और अपराध नहीं कर सकता था, जो उन्‍होंने किया। वालिद के सामने जो दर्द था वह आज भी है, ये खत्‍म होना चाहिए। बतौर वक्‍ता शमीम फ़ैज़ी ने कहा कि फ़ैज़ द्वारा संपादित लोटस आज तीसरी दुनिया में चल रहे नव औपनिवेशिक ताकतों के खिलाफ एक मेनीफेस्‍टो की तरह है। बनारस से आईं शाहिना रिज़वी ने कहा कि फ़ैज़ ने दबे कुचले ज़ुबानों को आवाज दी। बकौल फ़ैज़ ‘मुकाम फैज़ कोई राह में जंचा ही नहीं..., वे तरक्‍कीपसंद इंकिलाबी थे। दिल्‍ली विवि के अबू बक़र आज़ाद ने कहा कि फ़ैज़ न तो अपने दोस्‍तों की बात को सही कहते थे और न ही विरोधियों के सही को गलत। अजीजा बानो बोलीं, फ़ैज़ में जिंदगी से जुड़ी समस्‍याओं को रखने का अंदाज अलग था। फ़ैज़ एक अच्‍छे आलोच‍क भी थे वे अपने समय के उपन्‍यासकारों पर भी सवाल खड़े करते दिखाई देते हैं। सत्र का संचालन साहित्‍यकार असरार गांधी ने किया।

फ़ैज़ ने गज़ल की नई परंपरा की नींव डाली- गज़ल की परंपरा और फ़ैज़ ‘सुलूक जिससे किया हमने आशिकाना किया’ विषय पर आधारित अकादमिक सत्र में अध्‍यक्षीय वक्‍तव्‍य देते हुए शीर्षस्‍थ आलोचक नामवर सिंह ने कहा कि फ़ैज़ ने न सिर्फ गज़ल का ढांचा बदला बल्कि उसकी रूह भी बदली, उन्‍होंने गज़ल के तेवर को बदला, अंदाज को बदला। उन्‍होंने गजल की नई परंपरा की नींव डाली। उनकी गज़ल आम तौर की गज़ल नहीं है। वे मीर गालिब की परंपरा से हटकर कहते हैं। इसलिए जैसे-जैसे दुनिया बदलती गई, फ़ैज़ की गजलों के मायने भी बदले।

पाकिस्‍तान की मुनीज़ा हाशमी़ बोलीं, ऐसे जलसों की अहमियत है जिनमें हुई बहस से वालिद के बारे में पॉजीटिव व निगेटिव बातें जान पाती हूं। फ़ैज़ हिन्‍दुस्‍तान को अपनी प्रेमिका और पाकिस्‍तान को अपनी पत्‍नी बताते थे, कोई भी इंसान इनमें से किसी को छोड़ना नहीं चाहता। मशहूर शायर एहतराम इस्‍लाम ने कहा, गजल का जन्‍म कसीदा की कोख से और गजल की परंपरा से काफी पहले हुआ। फ़ैज़ ने गजल की परंपरा को टूटने से बचाया। उनकी नज्‍म गजल से बेहतर है। वे परंपरावादी नहीं, गजल के मिसाली शायर हैं। संजय श्रीवास्‍तव ने कहा, फ़ैज़ हमें विश्‍व चेतना से जोड़ते हैं। अर्जुमंद आरा बोलीं, फ़ैज़ उम्‍मीद की हर जगह शिद्दत से मौजूद मिलते हैं। सूफियों की रवायत को शामिल करते हुए फ़ैज़ उम्‍मीद का पैग़ाम देते हैं। सालिहा जर्रीन ने कहा कि उनकी शायरी में समाजी, सियासी रंग दिखते हैं। उदयपुर की सरवत खान बोलीं, अज़ीब फनकार के फ़ैज़ पूरी कायनात की बात करते हैं। मार्क्‍सीय दृष्टिकोण से उनकी शायरी इंसानी जज्‍बातों को रखते हैं। उनकी शायरी दुनिया के तमाम आंदोलनों से जुड़ती है। साहित्‍यकार डी.पी.त्रिपाठी ने फ़ैज़ के रिश्‍तों को ताजा करते हुए कहा, यह दूसरा मौका है जब फ़ैज़ को सुनने और समझने के लिए इतना बड़ा जलसा हो रहा है। इलाहाबाद में वर्धा हिंदी विवि की ओर से की गई पहल के लिए कुलपति राय साधुवाद के पात्र हैं। उन्‍होंने कहा कि फ़ैज़ की शायरी इंकलाब का इंतखाब है। उन‍की शायरी का इंकलाब दुखी बेवाओं, बच्‍चों, मज़दूरों, मेहनतकश के नाम है। फ़ैज़ के इंकलाब को किसी सरहदों में बांधा नहीं जा सकता है। वे मद्धिम व इश्‍क के अंदाज से जुर्म व शोषण के खिलाफ बयां करते थे। उनकी शायरी में जो बहाव है वह किसी समंदर की लहरों की तरह नहीं बल्कि नदी की शांत धारा की तरह है। जर्मनी के आरिफ नकवी बोले, फ़ैज़ तरक्‍कीपसंद अदीब हैं जो हमें इंसानियत की राह पर लाते हैं। आज जब हम सारी दुनिया के हालात को देख रहे हैं, नवआबादीयत की तरफ और पुराने कोलोनियल की तरफ जाने के लिए कोशिशें हो रही हैं, इसपर हमें सोचने की जरूरत है और ऐसे में फ़ैज़ और भी प्रासंगिक दिखते हैं।

बतौर वक्‍ता कुलपति विभूति नारायण राय बोले, इस अंतरराष्‍ट्रीय समारोह से फ़ैज़ के कई रोचक पहलुओं से हम रू-ब-रू हुए। स्‍टीफन ज्विंग ने कहा था कि किसी बड़ी हस्‍ती को जानने के लिए उनके समय को जानना महत्‍वपूर्ण होता है। पिछली शताब्‍दी के सौ वर्षों में दो महायुद्ध हुए, विध्‍वंस के नए तरीके औजार आए, उपनिवेशवाद का खत्‍मा हुआ और समाजवाद पनपा व नष्‍ट हुआ, मानवाधिकरों के लिए चार्टर आया और सबसे बड़ी बात है कि इन सौ वर्षों में इतने बड़े साहित्‍यकार पैदा हुए, जिनकी हम जन्‍मशती मना रहे हैं। इतनी बड़ी संख्‍या में यहां लोगों को आते हुए पिछले दस वर्षों में कभी नहीं देखा। यहां जो बहसें हुई इससे हम फ़ैज़ को नए तरीकों से जान पाए।

कार्यक्रम के दौरान प्रो.एहतेशाम हुसैन और मसीहुज्‍जुमा द्वारा संकलित पुस्‍तक ‘इंतेखाबे जोशे’ का विमोचन मंचस्‍थ अतिथियों के द्वारा किया गया। सत्र का संचालन करते हुए ए.ए.फातमी ने कहा कि जो काम उर्दू विवि या उर्दू अकादमी को करना चाहिए वो काम हिंदी विवि ने किया। इसके लिए कुलपति विभूति नारायण राय धन्‍यवाद के पात्र हैं। नामचीन और अदब की दुनिया से जुड़े लोगों के अलावा सभागार में इलाहाबाद के साहित्‍य प्रेमियों और बड़ी संख्‍या में विद्यार्थियों की मौजूदगी फ़ैज़ की अहमियत पर मुहर लगा रही थी। इस अवसर पर पंकज दीक्षित द्वारा निर्मित पोस्‍टर प्रदर्शनी आकर्षण के केन्‍द्र में थी।

कवि सम्‍मेलन व मुशायरा में बयां होते रहे सच समय के सरोकार- फ़ैज़ एकाग्र पर आयोजित यादगार मुशायरा एवं कवि सम्‍मेलन से अंतरराष्‍ट्रीय समारोह का समापन हुआ। समारोह की अध्‍यक्ष और पाकिस्‍तान की मशहूर शायरा किश्‍वर नाहिद ने ‘खेल सराय, सीढियों पर ठहरी उम्र’ जैसी नज्‍में सुनाकर समां बांधा। उन्‍होंने ‘इस खेल सराय से निकलो, तुम मेरे हो...’ और ‘उठो अम्‍मा, चूल्‍हा कैसा/ अब तो हमारा सारा घर सुलग चुका है/ उठो अम्‍मा, उठो अम्‍मा’ सुनाकर खूब वाहवाही लूटी। ऐहतराम इस्‍लाम ने पेश किया ‘न जाने कौन सा गुल खिल गया था गुलशन में कि उसके बाद न आई बहार बरसों तक’। इसी क्रम में जेबा अल्‍बी, यश मालवीय, आरिफ नक़वी, सरवत खान, शरीफ इलाहाबादी, अख्‍तर अजीज ने भी रचनाएं सुनाकर श्रोताओं की तालियां बटोरीं। शायरी व कविता के फ़नकारों ने खास इश्किया अंदाज में प्रेम, भाईचारा, एकता व सौहार्द पर शायरी पेश की और श्रोताओं ने तालियों से फनकारों की खूब हौसला आफजाई की। संचालन नंदल हितैशी ने किया तथा प्रो. संतोष भदौरिया ने धन्‍यवाद ज्ञापित किया।

फोटो संख्‍या 5833 कैप्‍शन- फ़ैज़ एकाग्र समारोह में उद्घाटन वक्‍तव्‍य देते हुए नामवर सिंह, मंच पर बाएं से मुनीज़ा हाशमी, अकील रिजवी, विभूति नारायण राय, नाहिद किश्‍वर व सलीमा हाशमी।

फोटो संख्‍या 5846 ‘प्रतिरोध की कविता और फैज’ सत्र के दौरान मंच पर बाएं से राजेन्‍द्र शर्मा, बद्री नारायण, खगेन्‍द्र ठाकुर, किश्‍वर नाहिद, अकील रिजवी व ए.ए. फातमी।

फोटो संख्‍या 5883 कैप्‍शन- फ़ैज़: गद्य के हवाले से, बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे’ पर आधारित सत्र में वक्‍तव्‍य देते हुए सलीमा हाशमी, मंच पर बाएं से शा‍हिना रिज़वी, शमीम फ़ैज़ी, अबू बक़र अब्‍बाद, अज़ीजा बानो व असरार गांधी।

फोटो संख्‍या 5927- गज़ल की परंपरा और फ़ैज़ ‘सुलूक जिससे किया हमने आशिकाना किया’ पर आधारित सत्र में वक्‍तव्‍य देते हुए नामवर सिंह, मंच पर बाएं से आरिफ नक़वी, मुनीजा हाशमी, देवी प्रसाद त्रिपाठी, जेबा अल्‍बी व विभूति नारायण राय।

फोटो संख्‍या 5849 कैप्‍शन- ‘फ़ैज़ एकाग्र’ समारोह में उपस्थित श्रोता।

प्रस्‍तुति- अमित कुमार विश्‍वास

महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय, वर्धा (महाराष्‍ट्र)

मो. 09970244359

ई.मेल- amitbishwas2004@gmail.com

amitbishwas2004@yahoo.co.in

Friday, May 13, 2011

आंचलिकता के शिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु


जन्म- 4 मार्च 1921 मृत्यु- 11 अप्रैल 1977

रेणु अपनी कृतियों को धूल और धूप से संवारते हैं, उनके यहाँ शूल भी है, धूल भी है, धूप भी है, गुलाब भी हैं, काँटे भी हैं अर्थात् उनकी कृतियों में आंचलिकता उभरकर आती है। वे अपने व्यक्तित्व से ऐसी उजास विकीर्ण करते हैं, जिससे समाज और समुदाय को तेजस्विता प्राप्त होती है। अपने समकालीनों से अलग रेणु अपनी रचनाधर्मिता में ठेठ देहात की बोली-बानी के साथ उपेक्षित अंचल का सजीव चित्र उकेरते हैं। ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े रेणु ने गांवों को नजदीक से देखा और पाया कि आजादी के उपरांत उत्तर भारत के गांवों के विकास में कौन रोड़े अटका रहा है? उत्तर भारत के गांवों को सामंतवादी व्यवस्था उसे बढ़ने से रोकती है यही कारण है कि परिवर्तन की लहर को सामंतों ने अपनी ओर मोड़ लिया। ग्रामीणों की भाग्यवादिता और दोगली राजनीति की निहित स्वार्थपरकता ने यथास्थिति को तोड़ने में खतरे महसूस किये। इन क्षेत्रों में औद्योगिक पिछड़ेपन के पीछे भी इन्हीं शक्तियों का हाथ है। इन शक्तियों को डर था कि गांवों में रोशनी के आलोकित होते ही बागडोर उनके हाथ से निकल न जाय। रेणु ने सामाजिक व्यवस्था और सामंतवादी संरचना की इस गहरी साजिश की पड़ताल बहुत ही पहले कर ली थी। इसलिए वे 'मैला ऑंचल' में निहित स्वार्थों के इस टकराव पर गहरी चोट करते हैं। उन्होंने समाज में ब्राह्मणवादी व्यवस्था द्वारा किए जा रहे छूआछूत को उजागर करने में कोई कसर नहीं छोड़ा है। सहारा वन टीवी पर धारावाहिक 'बिट्टो' में दिखाया जा रहा था कि कैसे छोटी जाति के लोगों को अछूत मानकर काम पर नहीं रखा जाता है। मंदिर का पुजारी सीढ़ियों को उसी अछूत से साफ-सफाई करवाता है पर हिदायत के साथ कि तुम्हें मंदिर तक नहीं पहुंचना है। मंदिर की सीढ़ी धोती हुई बिट्टो गांव के छोटे ठाकुर त्रिलोकीनाथ के हाथ को इसलिए थाम लेती है ताकि ठाकुरजी फिसलकर गिर न पड़ें। लिहाजा छोटे ठाकुर को शुध्द कराने के लिए पुजारी गंगाजल से पवित्र कर नए जनेऊ धारण करवाता है। वही ठाकुर रात की कालिमा में बिट्टो की बड़ी बहन से चिपकने में कोई जात नहीं जाती। यह धारावाहिक 'मैला ऑंचल' में वर्णित ब्राह्मणवादी व्यवस्था को याद दिलाता है :
''अरे हो बुड़बक बभना, अरे हो बुड़बक बभना,
चुम्मा लेवे में जात नहीं रे जाए।
सुपति-मउनियाँ लाए डोमनियाँ, माँगे पियास से पनियाँ
कुऑं के पानी न पाए बेचारी, दौड़ल कमला के किनरियाँ
सोही डोमनियाँ जब बनली नटनियाँ, ऑंखी के मारे पिपनियाँ
तेकरे खातिर दौड़ले बौड़हवा, छोड़के घर में बभनिया।
जोलहा धुनिया तेली तेलनियाँ के पीये न छुअल पनियाँ
नटिनी के जोबना के गंगा-जमुनवाँ में डुबकी लगाके नहनियाँ।
दिन भर पूजा कर आसन लगाके पोथी-पुरान बँचनियाँ
रात के ततमाटोली के गलियन में जोतखी जी पतरा गगनियाँ।
भकुआ बभना, चुम्मा लेवे में जात नहीं रे जाए!'' 1
 
सचमुच, रेणु ने इस उध्दरण के बहाने छोटी जात वालों की लड़कियों से ऊँची जात वाले लड़कों के अवैद्य संबंध पर अपनी लेखनी चलाई है। क्या यह कहना समीचीन होगा कि मैला ऑंचल में वर्णित पूर्णियां अंचल का ही चादर मैला है? और रोग का जो निदान डॉ. प्रशांत ने इस अंचल के संदर्भ में किया था, क्या यह रोग महज पूर्णियाँ अंचल का ही है? क्या इसका संबंध महाराष्ट्र, बंगाल, उड़ीसा आदि के अंचल से नहीं है? साहित्यकार शिव कुमार मिश्र कहते है कि ''वस्तुत: जिस हकीकत को रेणु ने पूर्णियाँ अंचल के संदर्भ में उजागर किया है, वह पूरे हिन्दुस्तान की हकीकत है,जो तमाम आधुनिक प्रगति के, आज भी मूलत: गांवों का ही महादेश है। यहां महज पूर्णियाँ अंचल ही अपने दुख-दर्द, हर्ष-विषाद आदि के साथ रेणु के कृतित्व में नहीं उभरा है, यह खेत-खलिहानों वाला असली भारतवर्ष है जो परम्परा से चली आ रही सामंती बेड़ियों में जकड़े लाखों स्त्री, पुरूष, बच्चे, बूढ़ों और नौजवानों के लिए रेणु के कृतित्व में अपनी ज्वलन्त वास्तविकता के साथ प्रत्यक्ष हुआ है।''2 रेणु वर्तमान समस्याओं को खुलकर पाठकों के समक्ष रखने की भरपूर कोशिश करते हैं इसलिए उन्होंने समाज में बेटी को परायी धन मानकर उसपर माँ-पिताजी कितना ध्यान देते हैं इसकी अभिव्यक्ति देते हुए वे कहते हैं कि ''बैल बेच डालो, डाक्टर पहले की तरह मुस्कराते हुए सेलाइन देने की तैयारी कर रहा है। डॉक्टर बाबू बैल बेच दूँगा तो खेती कैसे करूँगा? बाल-बच्चे भूखों मर जाएँगे।... लड़की की बीमारी है। क्या मतलब? हुजूर, लड़की की जात बिना दवा-दारू के ही आराम हो जाती है! लेकिन बेचारे बूढ़े का इसमें कोई दोष नहीं। सभ्य कहलानेवाले समाज में भी लड़कियाँ बला की पैदाइश समझी जाती है। जंगल-झार!''3 यह तो आज भी उतना ही सत्य प्रतीत होता है क्योंकि महिलाओं की संख्या में निरंतर आ रही गिरावट से हम समझ सकते हैं कि हम आज भी अपने मानसिकता में कितना बदलाव ला पाए हैं। रेणु की दूरदृष्टि केवल चीजों की ऊपरी सतह पर ही देखकर संतुष्ट नहीं हुई थी बल्कि वे नीचे, बहुत नीचे उतरकर समाधान ढ़ूँढ़ने की भी भरपूर कोशिश करते हैं। आर्थिक स्थिति ठीक न होने पर भी उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। इसलिए तो अस्वीकार की राजनीति करते हुए बिहार सरकार द्वारा दी जानेवाली तीन सौ रुपये की मासिक सहायता को अस्वीकार कर दिया था। 1970 ई. में प्राप्त पद्मश्री का अलंकरण भी उन्होंने वापस कर दिया। भ्रष्टाचारी प्रभुसत्ता द्वारा फेंके गए रोटी के टुकड़े को उन्होंने उनके मुँह पर दे मारा था। वे जीवन में सफलता के नहीं वरन् चरितार्थता के अन्वेषी थे।
तीन कसमें खायी : रेणु ने पहली कसम खायी थी कि वह कलम के माध्यम से पूर्णियाँ ग्राम्यांचल और वहाँ की माटी-मूरत जैसे भोले धरा-पुत्रों के दुख-दर्दों से स्वयं को समाहित करते हुए उनकी पीड़ाओं को आत्मसात् करेगा। इसी कसम ने उन्हें यह आत्मबल प्रदान किया जिससे वे ऑंचल और परती भूमि की हर सिकुड़न और जटिलता को महाभारतकालीन संजय की सी दिव्यदृष्टि से रूपायित करने की अनूठी क्षमता का परिचय दे पाए। आंचलिक परिवेश में गहरी संवेदनशीलता व तरल यथार्थ की अभिव्यक्ति ने उसे अपने ढ़ंग का बेजोड़ साहित्यकार बना दिया। आम आदमी की जुबान से जुड़े रेणु ने दूसरी कसम ली थी कि जहाँ कलम असमर्थ हो जाएगी वहाँ वह क्रांति का मार्ग अपनाएगा। इस कसम को जुवां पर रखकर ही उन्होंने मानव अधिकारों के लिए आजीवन-आचरण संघर्षरत यौध्दा लेखक की भाँति समाज को ऊर्जावान बनाए रखा। 1942 ई. से वे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के योध्दा बने और जीवन पर्यन्त क्रूर व्यवस्था के खिलाफ क्रांति की बिगुल फूँकते रहे।
रेणु ने तीसरी कसम खायी थी कि वह कभी किसी भी मृत्यु को स्वीकार नहीं करेगा, जो उसके जुझारू जीवन का अंत कर सके। परती परिकथा व मैला ऑंचल आने के बाद समकालीन दुष्ट शत्रु ने लाख भ्रम फैलाया पर वे हार नहीं माने, निरंतर लिखते रहे। वे आज भी पाठकों के बीच जीवित हैं।

आज तो तानाशाही का ऑपरेशन है : लोकतंत्र की बगावत व तानाशाही के खिलाफ हर लड़ाई में रेणुजी सबसे आगे रहते थे। उन्होंने नेपाल में राजसत्ता व निरंकुशता के विरूध्द बगावत का नेतृत्व किया। भारत में ही सन् 74 में केन्द्र की कांग्रेस सरकार के खिलाफ वे जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में बिहार आंदोलन में हिस्सा लिया। 1975 ई. में जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की तो वे आपातकाल के विरूध्द भी सक्रिय रहे। आपातकाल के दौरान फारविशगंज के दारोगा ने रेणु जी से कहा कि आपको गिरफ्तार करने के लिए दबाब पड़ रहा है इसलिए आप यहाँ से कही चले जाइए। लोगों के बहुत कहने वे भूमिगत होकर नेपाल चले गए। भूमिगत होने पर उनके पुत्र वेणु 500 रुपये में जमीन गिरवी रखकर उन्हें खाने के लिए पैसे दे आए थे। 1975 ई में बिहार छात्र आंदोलन में भी उन्होंने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। सरकार ने उन्हें जेल का रास्ता दिखाया, पूर्णियाँ जेल में वे महीनों पड़े रहे। पेप्टिक अल्सर के कष्ट के कारण उन्हें जेल से रिहा किया गया। डॉक्टरों ने पेप्टिक अल्सर बीमारी के इलाज के लिए ऑपरेशन की सलाह दी पर उन्होंने यह कह कर टाल दिया कि अभी काम बहुत करना है। आपातकाल के समय उन्होंने 'राँड़ का बेटा साँड़' नामक उपन्यास लिखी पर किसी ने प्रकाशित करने का साहस नहीं जुटा पाया। 'कागज की नाव' लिखने पर कांग्रेसी लोगों को यह भय हुआ कि जरूर इससे हंगामा खड़ा होगा, पांडुलिपि की चोरी कर ली गई। रेणुजी रेलवे बोर्ड के सदस्य थे, कटिहार से सभाकर वे घर आए, कटिहार में खाने में कुछ गड़बड़ी हो गई थी। कटिहार में ही तबीयत खराब हो गई, फारविशगंज के डॉ महानंद झा के यहाँ इलाज चल रहा था, हालत बिगड़ते देखकर ही अचेतावस्था में उन्हें पटना के अस्पताल में लाया गया। होश में आते ही लोकसभा चुनाव की घोषणा की जानकारी उन्हें अस्पताल में मिली। वे बड़े प्रसन्न हुए, जयप्रकाशजी की पहली सभा गांधी मैदान में हुई, उसमें वे डॉक्टर से बिना पूछे चुपचाप शामिल हुए थे। वे फिर अस्पताल से ही लोकतंत्र रक्षी साहित्य के माध्यम से लेखन कार्य कर जनप्रबोधन के कार्य में संलग्न रहे। उनके लिए ऑपरेशन की तारीख तय हुई थी 24 मार्च को। इधर 20 मार्च को पटना में चुनाव था। रेणुजी अस्पताल से वोट डालने चले आए, साथ में उनकी पत्नी लतिकाजी प्लास्टर लगे हाथ लिए हुई थी। उन्हें देखकर डॉ. शैलेन्द्रनाथ श्रीवास्तव ने पूछा कि ऐसी अवस्था में आप यहां क्यों आ गए? तो उन्होंने जबाव दिया कि 'आता कैसे नहीं, प्रजातंत्र की रक्षा के लिए आना ही था। मेरा ऑपरेशन तो 24 को है, तानाशाही का ऑपरेशन तो आज ही है। अगर तानाशाही नहीं हटी तो, मेरा ऑपरेशन सफल हो या असफल, क्या फर्क पड़ता है।' उन्हें यह सुखद समाचार प्राप्त हुआ था कि कांग्रेस की शर्मनाक हार हुई है और जनता सरकार बनने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। इस बीच लोकनायक जयप्रकाशजी उनसे मिलने अस्पताल पहुँचे तो वे उनसे अनुनय करने लगे कि कृपया करके मुझे देखने न आएं क्योंकि इसी समय को आप जनता की सेवा में लगाएं, देश को आपकी बहुत जरूरत है।

रेणु ने ऋण मुक्त होने के लिए कलम चलायी : जिस समय रेणु का जन्म हुआ, परिवार पर ऋण था। दादी माँ कहने लगी कि ऋण में जन्म लिया है, इसका नाम रिनुआ रखो, रिनुआ कहते-कहते रेणु नाम पड़ा। फणीश्वरनाथ पर सचमुच में समाज व धरती पर व्याप्त शोषण का ऋण था। उसी ऋण को उतारने के लिए वे लेखिनी को अपनाते हुए मानव अधिकरों के लिए लड़ते रहे। 1972 ई. में वे स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में बिहार विधान सभा के लिए चुनाव लड़े, नासमझ जनता ने उन्हें पराजय का मुँह दिखाया। पटना में रेणुजी से साहित्यकारों ने पूछा तो वे बोले कि चुनाव में हार गया पर गांवों से लिखने के लिए बहुत ही कच्ची सामग्री ले आया हूँ। उनके तीनों पुत्र पदम पराग राय 'वेणु', अपराजित राय 'अप्पू', दक्षिणेश्वर प्रसाद राय 'पप्पू' समाज कार्य में जुट गए, पढ़े-लिखे हैं, चाहते तो कोई सरकारी नौकरी भी कर सकते थे लेकिन वे समाज के प्रति अपना दायित्व समझकर ही सेवाकार्य में जुटकर शोषण व अन्याय के खिलाफ लड़ाइयाँ लड़ रहे हैं।

तड़-तड़, तड़ाक : रेणुजी ब्रिटिश औपनिवेशिक शासनकाल में पैदा हुए थे। बाल्यकाल से ही वे मुक्त हवा में सांस लेने के प्रयास में थे। उन दिनों बंदे मातरम बोलने पर बेंत की सजा मिलती, इसकी परवाह किए बिना ही उन्होंने अररिया हाइस्कूल में बंदे मातरम की जयबोल से कक्षा को गुंजायमान किया था तो उन्हें 7 बेंत की सजा हुई। अध्यापक तड़-तड़, तड़ाक बेंत खींचते रहे और वे बंदे मातरम बोलते रहे अंतत: गोरे अध्यापक को रूकना पड़ा था।

शोध केन्द्र बना रेणु गाँव  अपनी अमर कृतियों से देश-विदेश में पहचान बना चुके कथाशिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु का गांव औराही हिंगणा शोध केंद्र के रूप में तब्दील हो चुका है। गांव तो जर्जर हालत में है ही, मैला ऑंचल में वर्णित भोलापुर मठ भी खंडहर का रूप ले चुका है। साल का कोई भी महीना ऐसा नहीं होगा कि वहाँ देश-विदेश से शोधार्थी न पहुँचते हों। यही कारण है कि 'तीसरी कसम' फिल्म से प्रभावित होकर रेणु साहित्य पर शोध करने आए हाइडेल विश्वविद्यालय, जर्मनी की शोधार्थी हेडी शार्डोक ने मीडिया को बताया था कि रेणु की कृतियाँ पढ़ते हुए जैसी तस्वीर मन में उभरती है वही तस्वीर रेणु गांव में प्रत्यक्षत: देखने को मिली। इसी तरह औराही हिंगणा में रेणु साहित्य पर शोध करने आए टेक्सास विश्वविद्यालय, अमेरिका के शोधार्थी इयान वुल फर्ड कहते हैं कि वर्षों पूर्व रेणु ने जो ग्रामीण समस्या पर लिखा वह सच्चाई आज भी बरकरार है।
औराही हिंगणा गांव को आधार बनाकर लिखे मैला आंचल के शूल अब तक नहीं हटे, गांव में उनके घर तक पहुँचने के लिए ऊबर-खाबर कच्ची सड़क ही है। मुझे याद है कि बचपन में जब मैं औराही हिंगणा गया था तो फारविशगंज से पहले फणीश्वरनाथ रेणु द्वार था। उसी द्वार को ध्यान में रखकर इसबार भी रेणुजी के घर पहुँचना चाहता था। रास्ते में वह द्वार मिला ही नहीं, फोर लेन पर भागती मेरी गाड़ी फारविशगंज जा पहुँची, तो वहाँ पता चला कि पथ निर्माण विभाग वालों ने उस द्वार को गिरा दिया है। सरकार सांस्कृतिक मूल्यों को बचाने का चाहे जितना भी बखान करें लेकिन रेणु के गांव में संग्रहालय तक नहीं बन पाया है। पदमा राय को इस बात का आज भी मलाल है कि बड़े-बड़े साहित्यकार व शोद्यार्थी रेणुजी पर शोध करने यहाँ आते हैं पर गांव में एक भी पुस्तकालय व शोध केंद्र नहीं बन पाया है।

संदर्भ :
1.रेणु फणीश्वरनाथ 'मैला ऑंचल' राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली-110002 पृष्ठ 126
2.रेणु :संस्मरण और श्रध्दांजली, संपादक-प्रो. रामबुझावन सिंह, डॉ. प्रो. रामवचन राय, नवनीता प्रकाशन, दरियापुर, पटना-800004, पृष्ठ 48
3.रेणु फणीश्वरनाथ 'मैला ऑंचल' राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली-110002 पृष्ठ 140