Saturday, October 29, 2011

फि़जा में फैल गया ‘फ़ैज़’ का फ़ैज़

वर्धा हिंदी विवि द्वारा फ़ैज़ की जन्‍मशती पर आयोजित अंतरराष्‍ट्रीय समारोह में

अजीम शायर फ़ैज़ को याद करने जुटे देश-विदेश के अदीब व शायर

शहर इलाहाबाद और यहां की अदबी रवायत व गंगा-जमुनी तहज़ीब के लिए 22 व 23 अक्‍टूबर का दिन यादगार बन गया क्‍योंकि ‘हम मेहनतकश जगवालों से जब अपना हिस्‍सा मांगेंगे/ इक खेत नहीं देश नहीं, सारी दुनिया मांगेंगे,/ बोल की लब आजाद हैं तेरे.../ बोल की जां अब तक तेरी है...’ जैसी विश्‍व क्‍लासिक शायरी रचने वाले फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के जन्‍मशती के अवसर पर महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय, वर्धा व प्रगतिशील लेखक संघ के सहयोग से दो दिवसीय अंतरराष्‍ट्रीय समारोह का आयोजन किया गया जिसमें पाकिस्‍तान, जर्मनी सहित भारत के नामचीन अदीबों ने विमर्श किया।

‘शख्शियत: फ़ैज़ अहमद फ़ैज़’ पर आधारित उद्घाटन सत्र की अध्‍यक्षता करते हुए विवि के कुलाधिपति व हिंदी के शीर्ष आलोचक नामवर सिंह ने फ़ैज़ को मद्धम स्‍वर में दिलों में आग भर देने वाला शायर बताते हुए कहा कि अवाम में क्रांतिकारी चेतना जगाने की कुवत रखने वाले फ़ैज में गुरूर जरा भी नहीं था। लोकप्रियता की ऊंचाई पर होने के बावजूद वे बेहद शालीन थे। उन्‍होंने इस बात पर प्रसन्‍नता जाहिर की कि वर्धा हिंदी विवि फ़ैज़ की जन्‍मशती पर इतना बड़ा कार्यक्रम करनेवाला पहला विश्‍वविद्यालय बना। साथ ही इलाहाबाद में कार्यक्रम करना इसलिए भी सार्थक रहा क्‍योंकि गंगा-जमुनी तहज़ीब का असली संवाहक यही स्‍थल है। फ़ैज़ की बेटियां सलीमा हाशमी और मुनीज़ा हाशमी व पाकिस्‍तान की सुप्रसिद्ध लेखिका किश्‍वर नाहिद की मौजूदगी ने हिन्‍द-पाक के अवामी और तहज़ीबी रिश्‍तों को नए जोश और मोहब्‍बत से भर दिया। इलाहाबाद संग्रहालय का सभागार अदब और तहजीब से जुड़े लोगों से खचाखच भरा था। यह इस बात की तस्‍दीक करता है कि फ़ैज़ की दीवानगी किस कदर आम लोगों पर हावी है। बकौल फ़ैज़ की बेटियां, यह सिर्फ और सिर्फ इसलिए कि फ़ैज़ का किसी से नफ़रत का रिश्‍ता नहीं था। वह इंसानियत और मोहब्‍बत की नुमाइंदी करते थे। फ़ैज़ की दोनों बेटियों ने संगमी नगरी में मिले प्‍यार और मोहब्‍बत पर खुशी जाहिर की। कहा कि यहां का माहौल देखकर वे समझ सकती हैं कि फ़ैज़ के दिल में हिन्‍दुस्‍तान के प्रति इतनी मोहब्‍बत क्‍यों थी। बतौर वक्‍ता नाहिद किश्‍वर बोलीं, फ़ैज़ हमेशा सीखने की कोशिश करते थे और दूसरों के हूनर को सराहते भी थे, यह बड़ी शख्शियत की पहचान है। उनसे मोहब्‍बत और इंसानियत की जो सीख मिली वह बड़े काम की निकली। प्रो.अकील रिजवी ने फ़ैज़ से जुड़े संस्‍मरण सुनाते हुए सन् 1981 में इलाहाबाद विवि में हुए कार्यक्रम का जिक्र किया और बताया कि तमाम आशंकाओं के बावजूद फ़ैज़ को सुनने के लिए इतना बड़ा मज़मा जुटा जो फिर कभी दिखायी नहीं दिया। उन्‍होंने कहा कि हिंदी में फ़ैज़ की इतनी बड़ी अहमियत है जितनी शायद उर्दू में भी नहीं।

वर्धा हिंदी विवि द्वारा ‘बीसवीं शताब्‍दी का अर्थ : जन्‍मशती का सन्‍दर्भ’ श्रृंखला के तहत ‘फ़ैज़ एकाग्र’ पर आयोजित समारोह में स्‍वागत वक्‍तव्‍य देते हुए कुलपति विभूति नारायण राय ने कहा कि फ़ैज़ भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे बड़े कवियों में से एक हैं और हमारी साझा संस्‍कृति के उत्‍कृष्‍टतम नमूना हैं। समकालीन संदर्भ में फ़ैज़ जैसे बड़े कवि पर विमर्श होने से हम लाभान्वित होंगे। बीसवीं सदी में कई ऐसे रचनाकार हुए जो परिवर्तनगामी चेतना से समकालीन चुनौतियों से लड़ र‍हे थे। कुलाधिपति नामवर सिंह ने जिम्‍मेदारी सौपीं थी कि जिन रचनाकारों की जन्‍मशती है, उनपर समग्र रूप से वैचारिक विमर्श हो। वर्धा से शुरू हुई इस श्रृंखला के तहत यह विवि का छठवां आयोजन है। इसके पूर्व नागार्जुन, उपेन्‍द्र नाथ अश्‍क, केदार नाथ अग्रवाल और भुवनेश्‍वर पर क्रमश: पटना, इलाहाबाद, बांदा एवं इलाहाबाद में वैचारिक विमर्श के लिए कार्यक्रम हुए और अब इलाहाबाद में फ़ैज़ पर विमर्श कर रहे हैं। ‘शख्शियत: फ़ैज़ अहमद फ़ैज़’ विषय पर आधारित उद्घाटन सत्र में मंच पर वे लोग मौजूद थे जिनका फ़ैज़ से या तो निजी रिश्‍ता था या जिन्‍होंने फ़ैज़ को बहुत करीब से देखा हो, उनसे मिले हों। वक्‍ताओं ने जब फ़ैज़ की शख्शियत पर अपनी बात रखनी शुरू की तो श्रोता खुद-ब-खुद जुड़ते चले गए। क्‍योंकि वहां मौजूद लगभग हर शख्‍स फ़ैज़ से दिली लगाव महसूस कर रहा था, उनकी शायरी या नज्‍म़ से वाकिफ था। समारोह का संचालन करते हुए प्रलेस के अली जावेद ने कहा कि हम किसी भी शायर को छोटा करके नहीं देखते हैं। यह फैज ही है जिसने कि मजाज पर लिखा कि इंकलाब को नगमा बनाना हमने मजाज से सीखा है। मजाज को भी हम उतना ही एहतराम देते हैं जितना कि फ़ैज़ को। वर्धा हिंदी विवि के इलाहाबाद केन्‍द्र के प्रभारी व ‘बीसवीं शताब्‍दी का अर्थ : जन्‍मशती का सन्‍दर्भ’ श्रृंखला के संयोजक प्रो. संतोष भदौरिया ने आभार व्‍यक्‍त करते हुए कहा कि यह सभागार बहुत छोटा पड़ गया है पर फ़ैज़ के चाहने वालों का दिल बड़ा है। हम खुशनसीब हैं कि इतने बड़े अदीबों को सुना तथा फ़ैज़ की दोनो बेटियों को न सिर्फ देखा बल्कि उनको सुना भी।

पाकिस्‍तान की सु्प्रसिद्ध क‍वयित्री व लेखिका नाहिद किश्‍वर तथा पटना के खगेन्‍द्र ठाकुर की संयुक्‍त अध्‍यक्षता में प्रतिरोध की कविता और फ़ैज़ ‘लाजि़म है कि हम भी देखेंगे’ पर आधारित द्वितीय अकादमिक सत्र में वक्‍ताओं ने वैचारिक विमर्श किया। खगेन्‍द्र ठाकुर बोले, फ़ैज़ जैसे शायर के लिए प्रोटेस्‍ट बहुत हल्‍का शब्‍द है। वे इन्‍कलाब के शायर हैं। आज कविता में इन्‍कलाब की चर्चा होना बंद हो चुकी है। खासकर हिंदी कविता में मजदूरों के पसीने की गंध नहीं आ रही है। जहां फ़ैज़ ने इश्‍क पर शायरी लिखी वहीं उन्‍होंने इन्‍कलाब पर भी लिखा। फ़ैज़ जिस दौर में रहते थे वह इंकिलाबी दौर था। हम देख रहे हैं कि आज का दौर बदल गया है। इस पूंजीवादी व्‍यवस्‍था व नव औपनिवेशिक ताकतों के खिलाफ हम फ़ैज़ को एक विरासत के रूप में पाते हैं, हमें अपने लेखन में प्रतिरोध की चेतना से लबरेज होना चाहिए। उन्‍होंने कहा कि आधुनिक युग में जनता का हस्‍तक्षेप समाज को बदलने के लिए होना चाहिए। बकौल नाहिद किश्‍वर, फ़ैज़ हमेशा आम अवाम के लिए लिखते थे। उन्‍होंने कहा कि अच्‍छी शायरी वही है जो हर दौर के हालात को बयां कर दे। समकालीनता में उठ रहे दर्द के लिए उनकी शायरी सटीक प्रतीत होती है। फ़ैज़ को उर्दू अदब के चश्‍मे से नहीं देखता हूं, का जिक्र करते हुए लखनऊ से आए रमेश दीक्षित ने कहा कि उनकी कविता में आजादी की अनुगूंज थी। उन्‍होंने फिलीस्‍तीन, नेपाल, इंडोनेशिया सहित कई देशों में तानाशाही के खिलाफ चल रहे आजादी के लिए कविता लिखी। उन्‍होंने कहा कि वे तो जुर्म के खिलाफ लड़ने वाले शायर थे। अविनाश मिश्र ने कहा कि फ़ैज़ ने सामंतवाद, उपनिवेशवाद, लियाकत अली खां, जियाऊल हक जैसे सियासतों के तानाशाही को झेला था। उनकी शायरी आम आवाम से जुड़ती हैं। दुनिया में जहां भी अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर पर नव उपनिवेशवादी ताकतों के खिलाफ संघर्ष हो रहे हैं, फ़ैज़ और भी प्रासंगिक लगते हैं। कवि बद्री नारायण ने कहा कि फैज की कविता में प्रतिरोध की चेतना दिखाई देती है। फ़ैज़ कहते हैं कि कातिल मेरे पास रहो। यह प्रतिरोध कोई छिछला नहीं है। 1950 के दौर में जब पाकिस्‍तान का समाज व देश बन रहा था और हमारा मोह भंग हो रहा था। वे मोहभंग में भी कविता रचते हैं। फ़ैज़ को दुनिया के परिवर्तन का कवि बताते हुए उन्‍होंने कहा कि वे सामाजिक संघर्षों से जूझते हुए सीमांत प्रदेशों में गाये जाने वाले लोक गीतों की श्रृंखला को जोड़ते हैं। भोपाल के राजेन्‍द्र शर्मा ने कहा कि फ़ैज़ की शायरी को किसी मुल्‍क से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। जर्मनी से आए आरिफ नकवी ने फ़ैज़ को आम आदमी के दर्द को बयां करने वाला शायर बताया। कार्यक्रम में ज़फर बख्‍त ने वैचारिक विमर्श को आगे बढ़ाते हुए कहा कि फ़ैज़ इंसानियत के हक़ के लिए लड़ते थे। मंच का संचालन प्रो.ए.ए. फातमी ने किया तथा जयप्रकाश धूमकेतु ने आभार व्‍यक्‍त किया।

अंतरराष्‍ट्रीय समारोह के दूसरे दिन फ़ैज़ की बेटी सलीमा हाशमी व शमीम फ़ैज़ी की संयुक्‍त अध्‍यक्षता में फ़ैज़: गद्य के हवाले से ‘बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे’ पर आधारित अकादमिक सत्र में शाहिना रिज़वी, अबू बक़र आज़ाद, अजीजा बानो ने बतौर वक्‍ता के रूप में वैचारिक विमर्श किया। सलीमा हाशमी ने वालिद के साथ बिताए अनुभवों को साझा करते हुए बताया कि हिन्‍दुस्‍तान-पाकिस्‍तान बंटवारे के दर्द को खत्‍म करने की अपील की और फ़ैज़ के उन वाकयों व ख़तों का जिक्र किया कि, फ़ैज़ ने अपनी पत्‍नी एलिस से आवामी एकता और इंसानियत की हिफाजत को लेकर चिंता जताई थी साथ ही मुल्‍क के बंटवारे पर भी गहरा अफसोस जाहिर करते रहे। मुल्‍क विभाजन के बाद अम्‍मी को एक पत्र में वे लिखते हैं कि डार्लिंग ब्रिटिश अपने मंसूबों पर कामयाब हो गया और हम बंट गए। ब्रिटिश इससे बड़ा कोई और अपराध नहीं कर सकता था, जो उन्‍होंने किया। वालिद के सामने जो दर्द था वह आज भी है, ये खत्‍म होना चाहिए। बतौर वक्‍ता शमीम फ़ैज़ी ने कहा कि फ़ैज़ द्वारा संपादित लोटस आज तीसरी दुनिया में चल रहे नव औपनिवेशिक ताकतों के खिलाफ एक मेनीफेस्‍टो की तरह है। बनारस से आईं शाहिना रिज़वी ने कहा कि फ़ैज़ ने दबे कुचले ज़ुबानों को आवाज दी। बकौल फ़ैज़ ‘मुकाम फैज़ कोई राह में जंचा ही नहीं..., वे तरक्‍कीपसंद इंकिलाबी थे। दिल्‍ली विवि के अबू बक़र आज़ाद ने कहा कि फ़ैज़ न तो अपने दोस्‍तों की बात को सही कहते थे और न ही विरोधियों के सही को गलत। अजीजा बानो बोलीं, फ़ैज़ में जिंदगी से जुड़ी समस्‍याओं को रखने का अंदाज अलग था। फ़ैज़ एक अच्‍छे आलोच‍क भी थे वे अपने समय के उपन्‍यासकारों पर भी सवाल खड़े करते दिखाई देते हैं। सत्र का संचालन साहित्‍यकार असरार गांधी ने किया।

फ़ैज़ ने गज़ल की नई परंपरा की नींव डाली- गज़ल की परंपरा और फ़ैज़ ‘सुलूक जिससे किया हमने आशिकाना किया’ विषय पर आधारित अकादमिक सत्र में अध्‍यक्षीय वक्‍तव्‍य देते हुए शीर्षस्‍थ आलोचक नामवर सिंह ने कहा कि फ़ैज़ ने न सिर्फ गज़ल का ढांचा बदला बल्कि उसकी रूह भी बदली, उन्‍होंने गज़ल के तेवर को बदला, अंदाज को बदला। उन्‍होंने गजल की नई परंपरा की नींव डाली। उनकी गज़ल आम तौर की गज़ल नहीं है। वे मीर गालिब की परंपरा से हटकर कहते हैं। इसलिए जैसे-जैसे दुनिया बदलती गई, फ़ैज़ की गजलों के मायने भी बदले।

पाकिस्‍तान की मुनीज़ा हाशमी़ बोलीं, ऐसे जलसों की अहमियत है जिनमें हुई बहस से वालिद के बारे में पॉजीटिव व निगेटिव बातें जान पाती हूं। फ़ैज़ हिन्‍दुस्‍तान को अपनी प्रेमिका और पाकिस्‍तान को अपनी पत्‍नी बताते थे, कोई भी इंसान इनमें से किसी को छोड़ना नहीं चाहता। मशहूर शायर एहतराम इस्‍लाम ने कहा, गजल का जन्‍म कसीदा की कोख से और गजल की परंपरा से काफी पहले हुआ। फ़ैज़ ने गजल की परंपरा को टूटने से बचाया। उनकी नज्‍म गजल से बेहतर है। वे परंपरावादी नहीं, गजल के मिसाली शायर हैं। संजय श्रीवास्‍तव ने कहा, फ़ैज़ हमें विश्‍व चेतना से जोड़ते हैं। अर्जुमंद आरा बोलीं, फ़ैज़ उम्‍मीद की हर जगह शिद्दत से मौजूद मिलते हैं। सूफियों की रवायत को शामिल करते हुए फ़ैज़ उम्‍मीद का पैग़ाम देते हैं। सालिहा जर्रीन ने कहा कि उनकी शायरी में समाजी, सियासी रंग दिखते हैं। उदयपुर की सरवत खान बोलीं, अज़ीब फनकार के फ़ैज़ पूरी कायनात की बात करते हैं। मार्क्‍सीय दृष्टिकोण से उनकी शायरी इंसानी जज्‍बातों को रखते हैं। उनकी शायरी दुनिया के तमाम आंदोलनों से जुड़ती है। साहित्‍यकार डी.पी.त्रिपाठी ने फ़ैज़ के रिश्‍तों को ताजा करते हुए कहा, यह दूसरा मौका है जब फ़ैज़ को सुनने और समझने के लिए इतना बड़ा जलसा हो रहा है। इलाहाबाद में वर्धा हिंदी विवि की ओर से की गई पहल के लिए कुलपति राय साधुवाद के पात्र हैं। उन्‍होंने कहा कि फ़ैज़ की शायरी इंकलाब का इंतखाब है। उन‍की शायरी का इंकलाब दुखी बेवाओं, बच्‍चों, मज़दूरों, मेहनतकश के नाम है। फ़ैज़ के इंकलाब को किसी सरहदों में बांधा नहीं जा सकता है। वे मद्धिम व इश्‍क के अंदाज से जुर्म व शोषण के खिलाफ बयां करते थे। उनकी शायरी में जो बहाव है वह किसी समंदर की लहरों की तरह नहीं बल्कि नदी की शांत धारा की तरह है। जर्मनी के आरिफ नकवी बोले, फ़ैज़ तरक्‍कीपसंद अदीब हैं जो हमें इंसानियत की राह पर लाते हैं। आज जब हम सारी दुनिया के हालात को देख रहे हैं, नवआबादीयत की तरफ और पुराने कोलोनियल की तरफ जाने के लिए कोशिशें हो रही हैं, इसपर हमें सोचने की जरूरत है और ऐसे में फ़ैज़ और भी प्रासंगिक दिखते हैं।

बतौर वक्‍ता कुलपति विभूति नारायण राय बोले, इस अंतरराष्‍ट्रीय समारोह से फ़ैज़ के कई रोचक पहलुओं से हम रू-ब-रू हुए। स्‍टीफन ज्विंग ने कहा था कि किसी बड़ी हस्‍ती को जानने के लिए उनके समय को जानना महत्‍वपूर्ण होता है। पिछली शताब्‍दी के सौ वर्षों में दो महायुद्ध हुए, विध्‍वंस के नए तरीके औजार आए, उपनिवेशवाद का खत्‍मा हुआ और समाजवाद पनपा व नष्‍ट हुआ, मानवाधिकरों के लिए चार्टर आया और सबसे बड़ी बात है कि इन सौ वर्षों में इतने बड़े साहित्‍यकार पैदा हुए, जिनकी हम जन्‍मशती मना रहे हैं। इतनी बड़ी संख्‍या में यहां लोगों को आते हुए पिछले दस वर्षों में कभी नहीं देखा। यहां जो बहसें हुई इससे हम फ़ैज़ को नए तरीकों से जान पाए।

कार्यक्रम के दौरान प्रो.एहतेशाम हुसैन और मसीहुज्‍जुमा द्वारा संकलित पुस्‍तक ‘इंतेखाबे जोशे’ का विमोचन मंचस्‍थ अतिथियों के द्वारा किया गया। सत्र का संचालन करते हुए ए.ए.फातमी ने कहा कि जो काम उर्दू विवि या उर्दू अकादमी को करना चाहिए वो काम हिंदी विवि ने किया। इसके लिए कुलपति विभूति नारायण राय धन्‍यवाद के पात्र हैं। नामचीन और अदब की दुनिया से जुड़े लोगों के अलावा सभागार में इलाहाबाद के साहित्‍य प्रेमियों और बड़ी संख्‍या में विद्यार्थियों की मौजूदगी फ़ैज़ की अहमियत पर मुहर लगा रही थी। इस अवसर पर पंकज दीक्षित द्वारा निर्मित पोस्‍टर प्रदर्शनी आकर्षण के केन्‍द्र में थी।

कवि सम्‍मेलन व मुशायरा में बयां होते रहे सच समय के सरोकार- फ़ैज़ एकाग्र पर आयोजित यादगार मुशायरा एवं कवि सम्‍मेलन से अंतरराष्‍ट्रीय समारोह का समापन हुआ। समारोह की अध्‍यक्ष और पाकिस्‍तान की मशहूर शायरा किश्‍वर नाहिद ने ‘खेल सराय, सीढियों पर ठहरी उम्र’ जैसी नज्‍में सुनाकर समां बांधा। उन्‍होंने ‘इस खेल सराय से निकलो, तुम मेरे हो...’ और ‘उठो अम्‍मा, चूल्‍हा कैसा/ अब तो हमारा सारा घर सुलग चुका है/ उठो अम्‍मा, उठो अम्‍मा’ सुनाकर खूब वाहवाही लूटी। ऐहतराम इस्‍लाम ने पेश किया ‘न जाने कौन सा गुल खिल गया था गुलशन में कि उसके बाद न आई बहार बरसों तक’। इसी क्रम में जेबा अल्‍बी, यश मालवीय, आरिफ नक़वी, सरवत खान, शरीफ इलाहाबादी, अख्‍तर अजीज ने भी रचनाएं सुनाकर श्रोताओं की तालियां बटोरीं। शायरी व कविता के फ़नकारों ने खास इश्किया अंदाज में प्रेम, भाईचारा, एकता व सौहार्द पर शायरी पेश की और श्रोताओं ने तालियों से फनकारों की खूब हौसला आफजाई की। संचालन नंदल हितैशी ने किया तथा प्रो. संतोष भदौरिया ने धन्‍यवाद ज्ञापित किया।

फोटो संख्‍या 5833 कैप्‍शन- फ़ैज़ एकाग्र समारोह में उद्घाटन वक्‍तव्‍य देते हुए नामवर सिंह, मंच पर बाएं से मुनीज़ा हाशमी, अकील रिजवी, विभूति नारायण राय, नाहिद किश्‍वर व सलीमा हाशमी।

फोटो संख्‍या 5846 ‘प्रतिरोध की कविता और फैज’ सत्र के दौरान मंच पर बाएं से राजेन्‍द्र शर्मा, बद्री नारायण, खगेन्‍द्र ठाकुर, किश्‍वर नाहिद, अकील रिजवी व ए.ए. फातमी।

फोटो संख्‍या 5883 कैप्‍शन- फ़ैज़: गद्य के हवाले से, बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे’ पर आधारित सत्र में वक्‍तव्‍य देते हुए सलीमा हाशमी, मंच पर बाएं से शा‍हिना रिज़वी, शमीम फ़ैज़ी, अबू बक़र अब्‍बाद, अज़ीजा बानो व असरार गांधी।

फोटो संख्‍या 5927- गज़ल की परंपरा और फ़ैज़ ‘सुलूक जिससे किया हमने आशिकाना किया’ पर आधारित सत्र में वक्‍तव्‍य देते हुए नामवर सिंह, मंच पर बाएं से आरिफ नक़वी, मुनीजा हाशमी, देवी प्रसाद त्रिपाठी, जेबा अल्‍बी व विभूति नारायण राय।

फोटो संख्‍या 5849 कैप्‍शन- ‘फ़ैज़ एकाग्र’ समारोह में उपस्थित श्रोता।

प्रस्‍तुति- अमित कुमार विश्‍वास

महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय, वर्धा (महाराष्‍ट्र)

मो. 09970244359

ई.मेल- amitbishwas2004@gmail.com

amitbishwas2004@yahoo.co.in

2 comments:

  1. अमित भाई, इसी बहाने फैंज़ साहब के बारे में बहुत कुछ जानने का मिल गया, आभार।

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  2. अमित जी, शायद आपने आज तक ’ब्‍लॉग के लिए जरूरी चीजें’ नहीं देखीं। समय निकाल कर देखिएगा, अच्‍छा लगेगा।

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